चराग़े-दिल

छीन ली मुझसे मौसम ने आज़ादियाँ
रास फिर आ गईं मुझको तन्हाइयाँ।

बनके भँवरे चुराते रहे रंगो-बू
रँग है अपना कोई, न है आशियां।

दूसरा ताज कोई बनाएगा क्या
अब लहू मैं रही हैं कहाँ गर्मियाँ।

खुद से हारा हुआ आज इन्सान है
हौसलों में कहाँ अब हैं अंगड़ाइयाँ।

आज जो ज़हमतों का मिला है सिला
बावफ़ा वो निभाती हैं दुशवारियाँ।

पहले अपने गरेबान में देख लो
फिर उठा ‘देवी’ औरों पे तू उँगलियाँ।

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