चराग़े-दिल

वफ़ाओं पे मेरी जफ़ा छा गई
तबीयत मुहब्बत से उकता गई।

करेगा न रोटी तलब पेट अब
कि ग़ुरबत मेरी भूख को खा गई।

ग़ज़ब है मिलीं मुख़तलिफ फितरतें
मुहबत गुलो - ख़ार को भा गई।

पिलाती रही ज़हर के जाम जो
वही ज़िंदगी मुझको रास आ गई।

छुपाया है ‘देवी’ उसे इस तरह
हक़ीक़त मगर सामने आ गई।

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