चराग़े-दिल

फिर खुला मैंने दिल का दर रक्खा
ख्वाहिशों से सजाके घर रक्खा।

मैं निगेहबाँ बनी थी औरों की
ज़िंदगानी को दाव पर रक्खा।

छलनी छलनी किया जिगर मेरा
मुझको उसने निशान पर रक्खा।

कहना चाहा, न कुछ भी कह पाये
ज़ब्त हमने ज़बान पर रक्खा।

सोचना छोड़ अब तो ऐ ‘देवी’
फैसला जब अवाम पर रक्खा।

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