चराग़े-दिल

ने मक़्सद से हटा कर तू नज़र
क्यों भटकता फिर रहा है दरबदर।

चार दिन की ज़िंदगी हँसकर गुज़ार
इस हक़ीक़त से न रहना बेख़बर।

बात करने के कई अंदाज़ हैं
दिल पे लेकिन सब नहीं करते असर।

हम तो अपनों में रहे ता-ज़िंदगी
अब अकेले में नहीं होती बसर।

मीठी बातें क्यों भली लगने लगी
ज़हर भी मुझको लगा है बेअसर।

नक्शे -पा ‘देवी’ मिलें जो राह में
मुश्किलें आसान आएँगी नज़र।

<< पीछे : खुबसूरत दुकान है तेरी आगे : फिर खुला मैंने दिल का दर रक्खा >>

लेखक की कृतियाँ

ग़ज़ल
आप-बीती
कविता
साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो