चराग़े-दिल

बददुआओं का है ये असर
हर दुआ हो गई बेअसर।
 
ज़ख्म अब तक हरे है मिरे
सूख कर रह गए क्यों शजर।
 
यूँ न उलझो किसी से यहाँ
फितरती शहर का है बशर।
 
राह तेरी मेरी एक थी
क्यों न बन पाया तू हमसफ़र।
 
वो मनाने तो आया मुझे
रूठ कर ख़ुद गया है मगर।
 
चाहती हूँ मैं ‘देवी’ तुझे
सच कहूँ किस क़दर टूटकर।

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