चराग़े-दिल

ज़िंदगी है ये, ऐ बेख़बर
मुख़्तसर, मुख़्तसर, मुख़्तसर।

तू न इतनी भी नादान बन
आख़िरत का है ‘देवी’ सफ़र।

ज़ायका तो लिया उम्र भर
ज़हर को समझे अमृत मगर।

फिर भी लौटे हैं प्यासे यहाँ
यूँ तो साहिल पे थे उम्र भर।

बनके बेख़ौफ़ चलता है क्यों?
मौत रखती है तुझ पर नज़र।

बस उन्हें देखते रह गये
हमसे ख़ुशियाँ चलीं रूठकर।

रक्स करती थी ख़ुशियाँ अभी
ग़म उन्हें ले गया लूटकर।

कैसे परवाज़ देवी करे
नोचे सैयाद ने उसके पर।

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