अनपढ़ता का सशक्तिकरण ज़िदाबाद!
डॉ. अशोक गौतम
हे हमारी अनपढ़ता का मख़ौल उड़ाने वालो! हे हमारी अनपढ़ता के सोशल मीडिया पर मीम बनाने वालो! क्या तुम नहीं चाहते कि हम अनपढ़ों का भी सशक्तिकरण हो? हम अनपढ़ ऐशो-आराम से, शानो-शान से पढ़े-लिखों के सिर अपने आगे झुकवा कर जिएँ?
इस देश में गधों का सशक्तिकरण हुआ। सशक्तिकरण की वजह से देखो तो गधे आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?
इस देश में कुत्तों का सशक्तिकरण हुआ। इस सशक्तिकरण की वजह से देखो तो कुत्ते आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?
इस देश में सियारों का सशक्तिकरण हुआ। इस सशक्तिकरण की वजह से देखो तो सियार आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?
इस देश में गीदड़ों का सशक्तिकरण हुआ। इस सशक्तिकरण की वजह से देखो तो गीदड़ आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?
इस देश में मगरमच्छों का सशक्तिकरण हुआ। इस सशक्तिकरण की वजह से देखो तो मगरमच्छ आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?
इस देश में गिद्धों का सशक्तिकरण हुआ। इस सशक्तिकरण की वजह से देखो तो गिद्ध आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?
ऐसे में केवल हमारे सशक्तिकरण पर आपत्ति क्यों? हम अनपढ़ नहीं, इस देश के लिए पढ़े-लिखे दुर्भाग्य हैं। जहाँ देखो, जब देखो देश के विकास में अपनी डिग्रियाँ फँसाए रहते हैं। जहाँ देखो, जब देखो, रोज़गार! रोज़गार! चिल्लाए रहते हैं। समझते क्यों नहीं, सशक्त पढ़े लिखे नहीं, सशक्त अनपढ़ देश की रीढ़ होते हैं। आज इस देश को पढ़े-लिखों की नहीं, अनपढ़ों की सख़्त ज़रूरत है।
पढ़ा-लिखा तो इधर-उधर डिग्री मार कुछ न कुछ कर लेता है। हम अनपढ़ हैं तो हम क्या करें? असली डिग्री कहाँ से लाएँ? कहीं से जो नक़ली डिग्री लाते भी हैं तो हमारे ही भाई शोर मचाने लग जाते हैं। हम पढ़े-लिखों से पूछते हैं, क्या इस देश में अनपढ़ों को जीने का अधिकार नहीं? सरकारी दफ़्तरों में चपरासी लगने को भी बीए एमए पासों की लाइन लगी होती है। ऐसे में हम कहाँ जाएँ?
हे पढ़े-लिखो! पेट तो हमारे भी हैं। एक नहीं, दस-दस। परिवार तो हमारे भी हैं। एक नहीं दस, दस। ख़्वाइशें तो हमारी भी हैं लाख करोड़। पढ़े-लिखे इधर-उधर काम कर लेते हैं तो हम राजनीति। और तो हमसे कुछ होता नहीं, सो अपना पेट पालने के लिए, अपने बीवी-बच्चों का पेट पालने के लिए हम जैसे राजनीति में उतर आते हैं। चढ़ने को तो हमें कहीं जगह नहीं।
सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता के सशक्तिकरणार्थ हम अपने बेटे को टिकट देते हैं तो इतनी चिल्ल-पों क्यों? चिल करो यार! जो पढ़े-लिखे हो तो हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ, ताकि कहीं से तो पढ़े-लिखे लगो।
सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता के सशक्तिकरणार्थ हम अपने भाई-बेटे को टिकट देते हैं तो इतनी चिल्ल-पों क्यों? चिल करो यार! जो पढ़े लिखे हो तो हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ, ताकि कहीं से तो पढ़े लिखो लगो।
सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता के सशक्तिकरणार्थ हम अपनी बीवी को टिकट देते हैं इतनी चिल्ल-पों क्यों? चिल करो यार! जो पढ़े लिखे हो तो हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ, ताकि कहीं से तो पढ़े लिखो लगो।
सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता के सशक्तिकरणार्थ हम अपने दामाद को टिकट देते हैं इतनी चिल्ल-पों क्यों? चिल करो यार! जो पढ़े लिखे हो तो हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ, ताकि कहीं से तो पढ़े लिखो लगो।
सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता के सशक्तिकरणार्थ करने के लिए हम अपनी बेटी को टिकट देते हैं इतनी चिल्ल-पों क्यों? चिल करो यार! जो पढ़े लिखे हो तो हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ, ताकि कहीं से तो पढ़े लिखो लगो।
सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता के सशक्तिकरणार्थ करने के लिए हम अपने साले को टिकट देते हैं इतनी चिल्ल-पों क्यों? चिल करो यार! जो पढ़े लिखे हो तो हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ, ताकि कहीं से तो पढ़े लिखो लगो।
तुम इसे जो मानो सो मानो, किन्तु यह और कुछ नहीं, केवल और केवल सशक्तिकरण के दौर में अनपढ़ता का सशक्तिकरण है बस! चलो! मान लो, हम-तुम पढ़े-लिखों को टिकट दे देते हैं। परिवारवाद से ऊपर उठ जाते हैं। तो क्या तुम जीत सकोगे? देश को लीड कर सकोगे? समाज पढ़े-लिखों को नहीं, अनपढ़ों को अपना प्रतिनिधि बनाना चाहता है। समाज में पढ़े-लिखों की नहीं, हम जैसों की जय-जयकार होती है। बड़े-बड़े पढ़े-लिखे हमारी जय-जयकार करते हैं। हमारे दम पर पढ़े-लिखे होने की हुंकार भरते हैं। समाज पढ़े-लिखों को नहीं, हम जैसों को सिर पर बैठाना चाहता है।
हे पढ़े-लिखो, बुरा मत मानना! और सारे खेल पढ़े-लिखों के हों तो हों, पर राजनीति पढ़े-लिखों का खेल नहीं। राजनीति में जो जितना अनपढ़ होता वह उतना ही पढ़ा लिखा होता है। इसलिए हम अनपढ़ पढ़े-लिखों के कल्याण के लिए राजनीति में आ जाते हैं।
सच मानिए, जो हम न हों तो राजनीति में शून्यता छा जाए। सच मानिए, हम न हों तो विकास के निर्णय लेने वाला कोई न हो। सच मानिए, हम न हों तो देश विकास के मार्ग से भटक जाए। सच मानिए, हम न हों तो भेड़़ों के शरीर पर ऊन इतनी लंबी हो जाए कि वे अपनी ही ऊन की गर्मी से सर्दी में भी झुलस जाएँ। सच मानिए, हम न हों तो देश दिशाहीन हो जाए। सच मानिए, हम न हों तो देश को दोपहर में भी पता न चले कि उसे जाना किस ओर हैं। वह इधर-उधर हाथ-पाँव मारता अंधकार! अंधकार! चिल्लाता रह जाए। अरे, जो पढ़ लिख कर अपने को ही दिशा न दे पाए, वे देश को ख़ाक दिशा देंगे?
हे पढ़े-लिखो! देशहित में हम अनपढ़ों का सशक्त होना बहुत ज़रूरी है। हम सशक्त होंगे तो देश सशक्त होगा। हम सशक्त होंगे तो लोकतंत्र सशक्त होगा। हम सशक्त होंगे तो पढ़े-लिखों के लिए रोज़गार के नए नए अवसर पैदा होंगे। तुम्हारी इन डिग्रियों ने तो बेरोज़गार ही आज तक पैदा किए। हम अनपढ़ भले ही और सब कुछ पैदा करते हों, पर कम से कम देश हित में बेरोज़गारी तो पैदा नहीं करते। महल्ले से लेकर ससंद तक कहीं भी एडजस्ट हो जाते हैं और पढ़े-लिखों से अपनी पालकी उठवा उन्हें रोज़गार दिलवाते हैं।
इसलिए तमाम पढ़ी-लिखी कैटेगरियों से निवेदन है कि देश हित में हम अनपढ़ों को खुलकर सशक्त होने दो। बेकार में अपने को पढ़ा-लिखा मान सपने में भी हमारी अनपढ़ता का मज़ाक़ न उड़ाओ! क्या पता किस मोड़ पर किस बुद्धिजीवी को हमारे ऑबलिगेशन की ज़रूरत पड़ जाए।
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