साहब और कोरोना में खलयुद्ध

01-04-2020

साहब और कोरोना में खलयुद्ध

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 153, अप्रैल प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

कल तक मैं बेकार का साहित्यकार था पर आज मैं सफल साहित्यकार हूँ। कारण, आज मेरा जुगाड़ भिड़ गया है। आज का साहित्यकार लेखन से नहीं, जुगाड़ से बड़ा होता है। जुगाड़ू साहित्यकार लिखता नहीं, बिकता है। जुगाड़ू साहित्यकार को सफल साहित्यकार होने से सरस्वती भी नहीं रोक सकती। मौलिक लिखने वाले साहित्यकार क्या खाक़ रोकेंगे? हाँ! जुगाड़ू उन्हें ज़रूर रोक सकता है। और आज मैंने रोक भी दिया है। लगा लें, अब जितना ज़ोर हो उनके पास! 

चमचागिरी चमचागिरी की बात है। मेरे बिना साहित्य का आजकल ट्टटा तक नहीं हिलता, कल तक मुझसे साहित्य में पत्ता नहीं हिला करता था। उस समय मेरा साहित्य में कोई जुगाड़ नहीं बैठ पाया था या कि सरकार दूसरे जुगाड़ वाले सद्साहित्यकारों की थी। हर सरकार के अपने अपने सिपहसालार होते हैं, अपने-अपने साहित्यकार होते हैं, अपने-अपने मलाई मार होते हैं। बहुत कम उन जैसे हर सरकार के प्रिय कलाकार होते हैं। या कि वे तलवे-शलवे चाट प्रिय हो जाते हैं। कल तक जो मुझे थर्ड क्लास साहित्यकार मानते थे, आज मैं उन्हें थर्ड क्लास साहित्यकार मानता हूँ। वक़्त-वक़्त की बात है भाई साहब! ये साला जुगाड़ होता ही ऐसा है। जो इस जुगाड़ को साहित्य में जो बना गया, वह गधा होने पर भी नितांत मौलिक चिंतन वाला साहित्यकार हो गया। साहित्य में लेखन वह नहीं देता जितना जुगाड़ देता है, तलवे-चटाई देती है। 

सो आज का मूर्धन्य साहित्यकार अपने ऑफ़िस में ऑफ़िस के सारे काम छोड़ साहित्य की इनकी-उनकी पाँच-सात किताबें अपने आगे खोल बारी-बारी से उनमें से लाइनें उठा मौलिक किताब रचने में जुटा था कि अचानक दरवाज़े पर कोई खड़ा दिखा तो मैंने साहित्य की ऊपरा-ऊपरी हेतु खोली किताबें बंद करते महाचिंतक की मुद्रा में पूछा, “ कौन? देखते नहीं इस वक़्त में मौलिक लेखन में व्यस्त हूँ?”

तो वह मुझे देख हँसते हुए बोला, “नमस्कार बंधु! इसी तरह जो मौलिक चिंतन करते रहे तो देखना एक दिन ज्ञानपीठ तक पहुँचोगे,” उसके कहने पर मैं गद्गद। क्या पता कब जैसे किस नामचीन साहित्यकार की फटी फेंकी हगीज़ मेरे जैसे साहित्यकार को मिल जाए तो वह उससे भी बड़ा साहित्यकार हो जाता है उसे अपनी पैंट पर पहन कर। अवसरवादी बड़े लोगों की इन्हीं फेंकी हगियों को बहुधा ढूँढ़ते रहते हैं, मेरी तरह फ़ुर्सत मिलते ही। कई बार तो सारे काम छोड़ कर। वैसे जहाँ तक मेरा अपना अनुभव है चोर क़िसिम का साहित्यकार किसीकी भी रचना चुराने पर उतना गद्‍गद्‍ नहीं होता जितना कि उसकी चोरी पकड़े जाने पर उसकी पीठ थपथपाने पर होता है।

“कहो ,क्या सेवा करूँ तुम्हारी दोस्त?" मैंने किताबें धीरे-धीरे अपने सामने से उठाते कहा तो उसने कहा, ”थोड़ा रेस्ट चाहिए था दोस्त! पूरा संसार पीछे पड़ा है।"

“क्यों, कोई साहित्य के दलाल हो क्या?”

"छी! मुझे साहित्य का दलाल कह कर मरने को विवश न करो मित्र! मैं कोरोना हूँ," वह सीधे अपने परिचय पर आया तो मैंने मुस्कुराते पूछा, "तो तुम क्या करने आए हो यहाँ? ग़लत ऑफ़िस में आ गए तुम दोस्त!”

"तुम्हारे बॉस से मिलने आया हूँ! बड़ी प्रशंसा सुनी है उनकी। बड़े बकवास दिल इनसान हैं वे। सही जगह पाँव पड़ने की महारत रखते हैं वे। उनसा मौक़ापरस्त तुम्हारे ऑफ़िस में कोई दूसरा नहीं," कह वह मुस्कुराते हुए मेरा मुँह देखने लगा तो मुझे उस पर धीरे-धीरे दया आने लगी। वफ़ादार अधीनस्थ के लिए गधा साहब सदा गालियाँ देते हुए भी परमादरणीय होता है।

 "क्या मतलब तुम्हारा?"

"मैं उनके जी भर गले लगना चाहता हूँ," कह वह मेरे गलने को हुआ तो मैंने उससे माफ़ी माँगते कहा, "दोस्त, अभी तो मुझे बख़्श ही दो। अभी तो मुझे चोरे जा रहे साहित्य का प्रतिफल लेना है। अभी-अभी तो मेरे जुगाड़ से साहित्य में पकड़ बनी है और तुम हो कि... रही बात मेरे बॉस की, तो वे इन दिनों वे कुर्सीवालों केे नज़दीकियों के सिवाय और किसीके गले तो छोड़ो, दसियों मिनट उनके आगे हाथ मिलाने को बढ़े हाथों पर भी थूकते नहीं।" 

 "पर मैं तो उनके गले लगकर ही रहूँगा। मेरा मन तुम्हारे साहब के गले लगने को बहुत बेचैन है अनुज!" उसने कहा तो मैंने उसके आगे हाथ जोड़े ही भीतर साहब का कमरा बता दिया हँसते हुए। मुझे पता था कि साहब के पास जाएगा तो साला मुँह की खाएगा। वे कोरोना के भी बाप हैं। ऐसे संक्रमण तो उनके दायें बायें लटके रहते हैं। ऐसे कोरोना तो उनके आगे धूल चाटते हैं। पूरा ऑफ़िस उनके कारनामों से इतना संक्रमित है कि... जबसे वे हरबार की तरह मुख्य कुर्सी के नज़दीक इनकी उनकी वज़ह से गए हैं, तबसे जिसके भी गले लगते हैं, वह ख़ुद ही अपना गला दबा लेता है।

मैंने मौलिक साहित्य रचना बंद कर साहब और कोरोना के बीच होने वाले खलयुद्ध का लाइव देखने की सोची। वैसे मुझे युद्ध के निर्णय का पहले ही पता था कि जीतेंगे तो अपने साहब ही। उनसे बड़ा कोरोना कोई हो ही नहीं सकता। 

उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ा कोरोना ने सर झुका कहा, "नमस्कार सर! मे आई कम इन?"

"आओ! कौन हो? कुर्सी वालों के नए मामा?"

"नहीं सर! आपसे छिपाना क्या, मैं कोरोना हूँ!" 

"अच्छा, वही कोरोना जिसने शेअर बाज़ार को धड़ाम कर दिया?" कहते उन्होंने चुटकी ली। 

"जी सर! आपने सही पहचाना।"

"तो तुम वही कोरोना हो जिसके डर से ही जन्मजात संक्रमित कुर्सिर्यों को भी सैनिटाइज़ किया जा रहा है?"

"जी सर! आप तो मेरे बारे में बहुत जानते हैं सर! सोशल मीडियाल्कोहलिक तो नहीं हो सर आप?"

"मैं सब अल्कोहलिक हूँ। तो वही कोरोना, जिसके डर से देवता भी देवलोक को कूच कर गए?" कह साहब ने चुटकी ली।

"जी सर!"

"तो वही कोरोना, जिसकी वज़ह से सरकार को बंद होते भी स्कूल बंद करने पड़े हैं?"

"जी सर! बिल्कुल ठीक पहचाना आपने," कोरोना ने मुस्कुराते कहा।

"अच्छा, तो वही कोरोना, जिसने बाज़ार में कर्फ़्यू लगा दिया है?"

"जी सर! सोलह आने सही पहचाना आपने।" 

"तो वही कोरोना, जिसकी वज़ह से जनता से अधिक भयभीत डॉक्टर हैं?"

"जी सर!"

"वही कोरोना जो लोक का सूप पीता है?"

"जी सर!" मैंने साफ़ देखा कि ज्यों-ज्यों साहब कोरोना को उसकी औक़ात बताते जा रहे थे, वैसे-वैसे वह फूलता जा रहा था। अव्वल दर्जे के संक्रमणों की यही सबसे बड़ी ख़ासियत होती है, "अच्छा तो, वही कोरोना? जिसके भय ये पत्थर भी सैनिटाइज़ किए जा रहे हैं?"

"अरे वाह सर! आप तो मेरे बारे में मीडिया वालों से भी अधिक जानते हैं! पिछले जन्म में नारद थे क्या? अब पता चला कि आप भी खोपड़े में दिमाग़ रखते हो। वर्ना आपके पीउन तक तो कहते हैं कि आप दिमाग़ में केवल जुगाड़ ही रखते हो। काम निकालने के लिए सगे मामा से भी प्रिय गधों को मामा बना लेते हो," कह कोरोना हँसते-हँसते उनकी ओर बढ़ने लगा तो उन्होंने वैधानिक चेतावनी दी, "बस! मेरी और तारीफ़ नहीं! अब मेरी ओर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने का! जानते नहीं इन दिनों मैं सरकार के ख़ासों की काछ का पसनीला बाल हूँ। तुम मुझे नहीं जानते कि मैं किस खेत का मूला हूँ।" साहब ने उसे हड़काया तो वह भी गुर्राया, "जानता हूँ सर! आपके बारे में सब जानता हूँ... मैंने भी देश-देश का पानी पिया है, मैंने मुँह खोल दिया तो आपकी ये इज़्ज़त की पैंट अपने आप ही शर्म के मारे खुल जाएग,” कह कोरोना मेरे प्रिय साहब का मुँह देखने लगा तो साहब ने पुनः गुर्राते कहा, "सुन बे नादान कोरोना! ऐसे कोरोना तो मेरी जेब में पचासियों क़ैद हैं। नहीं मानेगा न! तो ले अभी तुझे अपने गले लगा तेरा...” उसके बाद वही हुआ जो मैंने पहले ही सोच रखा था। ज्यों ही साहब ने कोरोना को गले लगने का खुला निमंत्रण दिया तो वह चीखता-चिल्लाता, अपने पूरे बदन पर अधिकृत दवा विक्रेता की दुकान पर बिकता नक़ली सैनिटाइज़र उड़ेलता वहाँ से यह कहता हवा हो लिया, "मर गया! बचाओ! मर गया! बचाओ!" का शोर करते करते। 

1 टिप्पणियाँ

  • 1 Apr, 2020 06:11 AM

    नजर और निशाना वही , हथियार नया ! अशोक गौतम जी को साधूवाद !

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