जो सुख सरकारी चौबारे वह....

15-12-2019

जो सुख सरकारी चौबारे वह....

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 146, दिसंबर द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)

कल उनका फोन आया। मेरे साथ वाले शर्माजी का। जो दो महीने पहले रोते-रोते रिटायर हुए थे अपने ऑफ़िस से। उनके रिटायर होते वक़्त लग रहा था जैसे विभाग ज़बरदस्ती उन्हें उन्हें रिटायर कर उन्हें घर भेज रहा हो। हम सब शेष बचे ऑफ़िस वाले उस वक़्त यही सोचे थे कि उनकी आत्मा यहीं रह जाएगी और उनका शरीर ही घर जाएगा। 

जब तक वे इस ऑफ़िस में रहे, उन्होंने तिनका तोड़ा नहीं, किसी भी साहब का कहना मोड़ा नहीं। बातूनी इतने कि पूछो ही मत! हर साहब को उँगलियों पर नचाने का फ़न था उनके पास! साहब कितना ही ख़तरनाक क्यों न हो, दूसरे ही दिन उसके दिमाग़ में ’दीकेल’ डाल ऐसे वश में कर लेते थे। वे इतने वाक्पटु कि उनके सामने नारद भी आ जाएँ तो दो मिनटों में ही मुँह की खाएँ। बीस साल से उनके ऑफ़िस से साहब जाते रहे, उनके ऑफ़िस में साहब आते रहे। पर वे किसी न किसी तरह जुगाड़ लड़ाकर उसी ऑफ़िस में जमे रहे। कइयों को तो शक सा होने लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि उनका गोलोकवास हो जाने के बाद भी उनकी आत्मा इसी ऑफ़िस में इसी किसी कुर्सी पर जमी रहे।  

 ‘और यार! क्या कर रहा है?’

ध्यान से सुना तो शर्माजी का फोन था। पूरे दो महीने बाद। सोचा था, तीर्थ करने निकल गए होंगे। ऑफ़िस में जो पाप किए थे उन्हें धोने। उनकी एक यही बात मुझे उनके नौकरी के वक़्त की सबसे अच्छी लगती थी कि वे हर दिन जब अपने ऑफ़िस आते थे तो अपने आप नहाकर आएँ या न, पर अपने पिछले दिन के पाप धोकर ज़रूर धोकर आते थे। मतलब, पिछले दिन के पापों की तरफ़ से हर दिन निखरे हुए।  

‘ओह शर्माजी आप? नमस्कार! कैसे हो?’

‘मैं तो ठीक ही हूँ यार, पर... इतने दिन हो गए यार! एक दिन भी याद नहीं किया, और जिस दिन मेरे रिटायर होने की फ़ेअरवेल थी, उस दिन तो आँसू बहाते हुए बड़ा कह रहे थे कि तुम मुझे मरके भी नहीं भुला पाओगे। ऑफ़िस की हर कुर्सी को चाटते-पाटते मुझे याद आओगे? क्या वे उस दिन बहाए सारे आँसू घड़ियाली थे या...’

‘क्या बताऊँ शर्माजी! आपकी इधर उधर फेंकी फ़ाइलों में इतना व्यस्त हो गया था कि पूछो ही मत... अब पता चला आप पर काम का कितना बोझ होता था? ये ऑफ़िस वाले बेकार में ही आपको भला-बुरा कहते थे कि....’

‘अच्छे आदमी जाने के बाद ही याद आते हैं दोस्त पर...’

‘पर क्या शर्माजी... इन सर्दियों में रजाई में घुसे रोमांटिक फ़िल्म देख रहे हो न? कौन सी हीरोइन के दीवाने हो चले हो आते बुढ़ापे में?’ मैंने उनके मसखरेपन को याद करते चुटकी लेते पूछा तो वे बोले, ‘कहाँ यार ये सब अब! घरवाले हैं कि तीस सालों की ऑफ़िस में शरीर पर चढ़ी चर्बी उतारने पर इस क़दर उतारू हैं कि....’

‘तो कुछ उतरी कि नहीं?’ मैंने एकबार और ठिठोली की तो लगा उस वक़्त वे ठिठोली के मूड में क़तई नहीं थे, ‘एक बात तो बताना... कोई आसपास तो नहीं है?’

‘नहीं! बस आगे अपना हीटर लगाया है तो पीछे आपके वाला। बड़ा मज़ा आ रहा है चारों ओर से अपने को सेंकने का। अब तो चाहे ऑफ़िस पर ग्लेशियर ही क्यों न आ जाए। गर्मी इतनी लग रही है शर्माजी की मन कर रहा है कुरता भी उतार दूँ।’

‘यार! तीस सालों में पहली बार पता चला कि बिजली का मीटर इतना तेज़ दौड़ता है! पता तो करना आजकल बिजली की स्लैब क्या है? मुझे लग रहा है कि बिजली वाले हमारा बिल आँखें बंद कर दे रहे हैं। आजतक मैंने कोई भी मीटर इतनी तेज़ी से दौड़ता नहीं देखा यार! मेरे घर का मीटर हीटर लगाते हुए ही यों दौड़ता है ज्यों वह मैराथन दौड़ रह हो। आह यार! वे भी क्या दिन थे?’ उनकी बातों से साफ़ लग रहा था कि वे रिटायरमेंट के बाद बिजली के मीटर से भी परेशान हैं।

‘मतलब शर्माजी??’

‘यार! साला दस मिनट में ही चार यूनिट फूँक जाता है। अबके बिजली का बिल आया तो बीवी ने साफ़ कर दिया कि जब घर में काम न हो तो चुपचाप रजाई में घुसे रहा करो। हाथ तोड़ दूँगी जो हीटर को हाथ भी लगाया तो.... रिटायर होकर घर क्या आए, बिजली का बिल चार गुणा हो गया। पता नहीं ऑफ़िस से क्या-क्या गंदी आदतें साथ लेकर आ गए हो? इससे अच्छा तो रिटायरमेंट के बाद भी वहीं ऑफ़िस में ही रहते, चाहे कैंटीन में ही लग जाते। कम से कम... पर यार! एक बात तो बताना?ऑफ़िस का मीटर भी क्या इतनी ही तेजी से घूमता है जितना मेरे घर का दौड़ता है? मुझे तो लगता है मेरी रिटायरमेंट के बाद ज्यों मेरे घर के सारे मीटर ख़राब हो गए हैं। उतनी चीनी जो पहले दो दो महीने ख़त्म नहीं होती थी, आजकल उतनी ही पंद्रहवें दिन ख़त्म हो जाती है। यार! बहुत परेशान हो गया हूँ इन दो ही महीनों में ही! घरवाले हैं कि चौबीसों घंटे कोई न कोई काम दिए रहते हैं। ऑफ़िस तो महीने में दस दिन आता था , शेष बहाना बनाकर शिमला हो आता था। जबसे रिटायर हुआ हूँ शिमला सपनों में ही देखना पड़ रहा है। जिन अफ़सरों से सरकारी ख़र्चे पर मिला करता था, अब उनसे सपनों में ही मिल रहा हूँ दोस्त! 

जबसे रिटायर होकर घर आया हूँ ,यहाँ तो सिर की खाज खुरकने तक का वक़्त नहीं। न कोई संडे न कोई सेंकेड सेटरडे। सच कहूँ यार! जो सुख सरकार चौबारे वो ससुराल न बुखारे! वैसा सुख मरने के बाद स्वर्ग में भी शायद ही मिले! इस धरती पर स्वर्ग कहीं है तो बस, सरकारी ऑफ़िस में ही है, सरकारी ऑफ़िस में ही है। जैसे मन किया पड़े रहे। जिसके आगे मन किया, साधिकार रिश्वत लेकर भी अड़े रहे। 
 
दोस्त! अब पता चला आदमी सरकारी चौबारे आने के लिए क्या-क्या नहीं करता! किस-किसके आगे नाक क्यों नहीं रगड़ता? उसे पता है कि जो जैसे-कैसे एक बार सरकारी चौबारे चढ़ गया समझो वह ज़िंदा ही स्वर्ग का द्वार पार कर गया। अब पता चला रिटायर होने के बाद भी समझदार लोग एक्सटेंशन के लिए हाथ-पाँव मारते-मारते क्यों भगवान को प्यारे हो जाते हैं! 

अच्छा दोस्त! हो सके तो बीच-बीच में अपने रिटायरमेंटी दोस्त को याद कर लिया करो तो इस दुखियारे मन को तनिक तसल्ली मिल जाया करेगी। मुझे भी लगेगा कि रिटायरमेंट के बाद भी मेरा कोई हमदर्द इस दुनिया में है। हो सके तो भगवान से मेरे लिए प्रार्थना करना कि वे मेरे ऑफ़िस बीते हुए के दिनों को लौटा दें,’ कह उन्होंने सिसकते हुए फोन काटा तो मुझे अपने पर बहुत रोना आया! पता नहीं क्यों? जबकि अभी मेरी रिटायरमेंट को दो दशक बाक़ी हैं।

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