कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की

 

प्रिय मित्रो, 

आज अप्रैल का प्रथम अंक अपलोड होने वाला है। अचानक मुझे अनुभव हुआ कि एक चौथाई वर्ष तो बीत गया। लगता है अभी तो २०२३ का हम लोगों ने स्वागत किया था। वास्तव में ही समय बहुत जल्दी बीतता है। महत्त्वपूर्ण यह है कि हम इस समय का उपयोग किस तरह से करते हैं। कुछ लोग होते हैं, जिनके लिए समय सदा कम रहता है और अन्य लोग ऐसे होते हैं कि जिनका समय काटे नहीं कटता। दिन में वही चौबीस घंटे होते हैं, परन्तु उनकी गति अलग-अलग रहती है। ठीक धन की तरह। इसीलिए समय को धन कहा जा सकता है। कम से कम मैं तो ऐसा ही मानता हूँ। 

पत्नी को सदा शिकायत रहती है कि मैं सेवा-निवृत्त होने के बाद व्यर्थ के कामों में उलझा रहता हूँ। अन्य शब्दों में मैं समय का सदुपयोग नहीं करता। जो काम उसके लिए व्यर्थ हैं, मेरे लिए वह अब जीवन है। दृष्टिकोण का अन्तर है। ऐसा नहीं है कि उसे साहित्य अच्छा नहीं लगता। सोने से पहले उपन्यास या कहानी पढ़ना सदा से उसका लगभग नियम रहा है, अब भी है। बस कहानी किसी और की लिखी हो; उसके निठल्ले पति की नहीं। बात उन दिनों की है जब मैंने लिखना आरम्भ किया था और प्रकाशित होने लगा था। एक बार मैंने उसे अपनी छोटी बहन से फोन पर बात करते हुए सुना। छोटी ने पूछा, “जीजा जी अब रिटायर हो गये हैं, क्या करते रहते हैं दिन भर?” उत्तर मुझे सुनाई दिया, “किसी काम के नहीं रहे—कवि हो गए हैं!” यह चुटकुला नहीं है, सच में ही ऐसा पूछा और कहा गया। यह बात अलग है कि न तो अब कोई मानेगा और न ही मैं व्यर्थ में कोई झगड़ा खड़ा करना चाहता हूँ। वैसे अगर बात को बिगड़ने न दिया जाए और बात आरम्भ की जाए तो एक कहानी का कथानक सहजता से मिल सकता है। अब देखना यह है कि मेरे इस विचार को कौन कहानी में बदल कर लिखता है। ऐसा मेरे साथ पहले भी हो चुका है। 

हुआ यूँ कि हिन्दी राइटर्स गिल्ड की गोष्ठी थी। मैंने अपनी कहानी ‘स्वीट डिश’ का एक अंश सुनाया। अगली गोष्ठी में किसी लेखिका ने कहा कि वह कहानी सुनाना चाहती हैं। संचालन मैं ही कर रहा था। वह उठीं और उन्होंने स्वीट डिश के कथानक का मुख्य अंश लेकर अपनी कहानी सुना दी। श्रोताओं में से कुछ आँखें नचा-नचा कर मुझे देख रहे थे। ऐसी परिस्थितियों मैं कर भी क्या सकता था! कथानक के अंश पर मेरा कोई कॉपीराइट नहीं है। कोई भी कुछ भी लिख सकता है। डॉ। शैलजा सक्सेना ने बहुत पहले एक लघुकथा लिखी, उसके कुछ महीने के बाद एक स्थानीय लेखिका ने कुछ शब्द बदल कर वही लघुकथा का शीर्षक बदल कर जगह-जगह पर सुनाई। मैं और शैलजा बस एक दूसरे का मुँह ताकते रहे। शायद मुझे उन लेखकों जैसा हो जाना चाहिए, जो उकसाने के बाद भी मुँह नहीं खोलते। पर क्या करूँ, प्रवृत्ति/प्रकृति को बदला भी नहीं जा सकता।

कई प्रसिद्ध लेखकों को जानता हूँ जो दशकों से भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जा रहे हैं। उनकी कविताएँ और कहानियाँ, विदेशी भाषा में पहले लिखी रचनाओं का संशोधित अनुवाद है। अगर आप अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य में समान रुचि रखते हैं और पढ़ते हैं तो आप भी पहचान जाएँगे कि अमुक कहानी अंग्रेज़ी की इस कहानी का संशोधित भारतीयकरण है। संशोधित भारतीयकरण इसलिए कह रहा हूँ कि विदेशों की कहानियाँ विदेशी संस्कृति पर आधारित होती हैं। अगर आप उसका ज्यों का त्यों अनुवाद कर देंगे तो यह अनूदित रचना ही रहेगी। हिन्दी साहित्य की रचना बनाने के लिए तो आपको मूल तत्त्व का संशोधन करके भारतीयकरण तड़का लगाना ही पड़ेगा। विडम्बना यह है कि कई बार प्रयास करने के बाद भी भारतीयकरण सम्भव नहीं हो पाता। बॉलीवुड की फ़िल्मों में यह प्रायः देखने को मिलता है। वह ऐसा इसलिए कि सितारों की दुनिया में लेखक हाशिए पर इतनी दूर रखे जाते हैं कि वह सिनेमा-स्क्रीन पर आते ही नहीं। ऐसे में फ़िल्म का निर्माता, निर्देशक, कहानीकार, पटकथा लेखक और नायक एक ही व्यक्ति होता है। 

बात कहाँ से शुरू की थी और कहाँ पर आ गया हूँ। क्या समय काटना इसी को कहते हैं? 

नहीं-नहीं, अभी-अभी अपने सम्पादकीय को फिर से पढ़ा है और लग रहा है कि चाहे-अनचाहे कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कह दी हैं। अभी यहीं बंद कर देना ही सही रहेगा। 

— सुमन कुमार घई

3 टिप्पणियाँ

  • आदरणीय संपादक महोदय ,, इस अंक के संपादकीय में कई विचारणीय विषय एक साथ उठ खड़े हुए हैं, उदाहरणार्थ :- रचना धर्मिता क्या आजीविका हो सकती है ?क्या साहित्य धन और यश कमाने के लिए ही रचा जाता है ?क्या कोई भी काम सिर्फ तभी उपयोगी है जब उससे धनोपार्जन हो सके? अनुवाद और कथानक की चोरी में क्या अंतर है? सभी पर विचार करके टिप्पणी दे पाना एक साथ तो संभव नहीं लग रहा है,। वैश्विक स्तर पर तो मेरी जानकारी नहीं है परंतु भारत में तो आदिकाल से ही संभवत: साहित्य सर्वप्रथम आत्मक तुष्टि और उसके बाद समाज सुधार के लिए रचा गया ऐसा मेरा मानना है। राज दरबारों का प्रश्रय पाकर पले बढ़े कवि और रचनाकारों को तो चारण और भाट कहा गया ना कि साहित्यकार। बीच में कुछ काल ऐसा आया जब साहित्य की रचना करना धनवान लोगों का शौक समझा गया। उसके बाद का लेखक और कवि तो निरंतर निर्धन ही रहा, प्रेमचंद, निराला आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

  • दार्शनिकता से भरा है आज का संपादकीय। लेखक कवि अथवा साहित्यकार होना काम हीं नहीं है। अचरज है विज्ञापन के लिए दो चार लाइनें झूठ लिखकर विज्ञापनकार (व्यवसायिक लेखक) पैसे कमा लेता है। साहित्य के लिए पुरी किताब में जीवन का सत्य लिखकर भी एक साहित्यकार पैसे नहीं कमाता। उसकी किताब बिकती नहीं है। मेरी पत्नी भी मुझसे हमेशा प्रश्न करती रहती है लिखने से आपको क्या मिलता है? मैं उसे बता नहीं पाता कि मुझे एक बड़ी खुशी और संतुष्टि मिलती है। क्योंकि जो मिलता है, प्रत्यक्षतः वह मेरा नीजी, अदृश्य और वह भी मानसिक है। रचना पुरी होने पर मै बच्चों की तरह शोर मचा कर कभी कोई खुशी जाहिर नहीं करता। हलाँकि मेरी कविताएँ और कहानियाँ उसे पसन्द है। संपादक जी एवं पुस्तक बाजार डाॅट काॅम की कृपा से मेरी पहली हिन्दी कविता संग्रह 'युग-संधि के इस पार' प्रकाशित हुई। पुस्तक बाजार डाॅट काॅम पर बहुत कम मूल्य पर ई पुस्तक के रुप में उपलब्ध है। इस आशा से कि इंटरनेट पर वैश्विक पहुँच मिलने की संभावना है । मगर संभवतः किसी ने आजतक उसे पढा नहीं। भारतीय मित्र कहते हैं कि डाउनलोड और पेमेंट की समस्या है। पेटीएम से पेमेंट नहीं हो रहा है। विदेशी मित्रों ने कभी डाउनलोड नहीं किया यानि उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है। संपादकीय पर लिख रहा था, बात नीजी होती जा रही है मगर निकली संपादकीय के विषय से हीं है। एक कहानी लिखने में कई सप्ताह लग जाते हैं। कभी-कभी महीने भी। स्वयं संपादक जी ने संभवतः व्यस्तता के कारण एक कहानी का अगला भाग पन्द्रह वर्ष के बाद लिखा। यानि साहित्य साहित्यकार का पीछा नहीं छोड़ती। उसकी लाख व्यस्तता में भी उससे तगादा करती रहती है। कलम उठा लो महोदय नहीं तो थोड़ा समय निकाल लो और बैठ जाओ कंप्यूटर पर। और साहित्यकारों को अपनी पत्नी के ताने सुनकर भी अपने साहित्य की जिद माननी पड़ती है। समय निकालना पड़ता है। समय के हिसाब से हर किसी को दिहाड़ी मिलती है। मेरा आग्रह है कि सृजनात्मक बौद्धिक कार्यों की दिहाड़ी तो संभव नहीं है। कम से कम से साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री तो हो जिससे लेखक साहित्यकारों के खाते में कुछ धन आए। और उससे भी ज्यादा लिखी गई बातें समाज तक पहुँचे। साहित्य से समाज का कुछ हित हो, कुछ लाभ हो।

  • आपने जो कटु सत्य कहा, फेसबुक पर उसकी भरमार है। लोग तो फ़िल्मों के दृश्यों के टुकड़े काटकर उपन्यास तक लिख लेते हैं और बेशर्मी से खुद की गिनती साहित्यकारों में करा लेते हैं। सच्चाई कहकर कोई भी बुरा नहीं बनना चाहता है। लघुकथा के क्षेत्र में तो चोरों की भरमार है। विवश होकर कई बार बुरा बनना पड़ता है।

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