ठेकुआ 

निर्मल कुमार दे (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

शाम के समय खेल के मैदान में आठ-दस साल के बच्चे खेल रहे थे। एक कोने पर राजू और प्रशांत भी आपस में बातचीत कर रहे थे। दोनों लगभग हमउम्र ही थे और दोनों गाँव की एक ही पाठशाला में पढ़ते थे। 

“तुम्हारी मम्मी छठ की पूजा नहीं करती! क्यों?” प्रशांत ने कहा। 

“नहीं। मेरे मुहल्ले में कोई भी परिवार छठ व्रत नहीं करता,” राजू ने जवाब दिया। 

“तब तो तुमने परसाद भी नहीं खाया होगा? ठेकुआ भी नहीं।”

“मम्मी कहती है कि छठ पूजा बड़ी कठिन है। और इसमें ख़र्च भी बहुत है।”

“चलो मेरे साथ . . . मेरे घर। तुम्हें ठेकुआ और बाक़ी प्रसाद मम्मी से दिला दूँगा,” प्रशांत ने कहा। 

राजू ने अपनी फटी क़मीज़ की ओर देखा जो थोड़ी मैली भी थी। 

“नहीं, गंदे कपड़ों में मैं . . .” राजू झिझक रहा था। 

“रुको, मैं गया और आया। तुम्हारे लिए छठ परब का परसाद लेकर आता हूँ,” प्रशांत ने प्रसाद लाने के लिए दौड़ लगाई। 

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