भीख
निर्मल कुमार देदो रुपये के सिक्के को उठाते हुए आठ साल की मुन्नी अपने गोद में तीन साल के भाई को कहा, “कितना अपमान है भाई भीख माँगने में,” एक आदमी दो रुपये का एक सिक्का सामने फेंक कर चला गया था।
“अरे तुम अभी नहीं समझोगे भाई! काश! बाबूजी शराबी और निखट्टू नहीं होते!”
मुन्नी की आँखें भर गई थी।
“माँ भी कितनी कमज़ोर हो गई है। बीमार भी। तीन दिनों से काम पर भी नहीं गई है,” मुन्नी बुदबुदा रही थी।
“ऐ लड़की! तुम भीख क्यों माँग रही हो?” प्रश्न सुनकर मुन्नी का ध्यान बँटा। उसने देखा सामने एक औरत खड़ी थी।
“भूख मिटाने!”
“तुम्हारे माँ-बाप?”
“माँ बीमार हैं और बाबूजी. . . ” मुन्नी आगे कुछ बोल नहीं पाई।
महिला को अपने प्रश्न से पछतावा हुआ। पचास रुपये का एक नोट मुन्नी को देते हुए कहा, “मम्मी की दवाई के लिए ये रुपये रख लो।”
“और सुनो आगे भीख नहीं माँगना। मम्मी को कहना सरकारी स्कूल की शिक्षिका से मिल ले। तुम्हारी पढ़ाई की ज़रूरत है।”
“मैं भी तो बग़ल की सपना की तरह स्कूल जाना चाहती हूँ, लेकिन बाबूजी भेजना नहीं चाहते।”
मुन्नी की बातें सुन महिला ने बच्ची की पढ़ाई का भार उठाने का निश्चय किया।
“तुम ज़रूर पढ़ोगी बेटा,” महिला ने कहा।
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