बताशे

निर्मल कुमार दे (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

”दादी! आप इस चिलचिलाती धूप में कैसे बाहर निकली हो?” दस वर्षीय राजू को घोर आश्चर्य हुआ। 

“बेटा, मैं प्रतिदिन गुल्लक बेचने सुबह आठ बजे निकलती हूँ और शाम तीन बजे तक घर वापस लौट जाती हूँ,” साठ वर्षीया बुढ़िया ने राजू को जवाब दिया। 

“तुम्हें धूप वर्षा की चिंता नहीं? कितना पसीना निकल रहा है!”

“सो तो है बेटा, ग़रीब हूँ, पर यह पसीना ईमानदारी का है। एक बोतल पानी देना बेटा,” बुढ़िया ने एक ख़ाली बोतल बढ़ाते हुए कहा। 

राजू घर के अंदर गया और झट से पानी भरकर लाया, साथ ही कुछ बताशे। 

“यह क्या बेटा! बताशे क्यों?” 

“आप भी तो मेरी दादी-जैसी हैं। बूढ़ी किन्तु प्यारी!” राजू की बातों में मिश्री घुली हुई थी। 

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