डॉक्टर सतीश राज पुष्करणा की लघुकथा और उसकी समीक्षा
निर्मल कुमार देदिखावा
लेखक: स्वर्गीय डॉ सतीश राज पुष्करणा
एक कॉफ़ी हाउस के बाहर बरामदे में लगी मेज़-कुर्सियों पर बैठे कुछ युवक कॉफ़ी पीने के साथ-साथ कुछ ऊँचे स्वर में किसी विषय पर बहस भी कर रहे थे। बाहर मेन रोड पर एक भिखारी हाथ में कटोरा लिए भीख के उद्देश्य से खड़ा था। उन युवकों में से एक युवक, जो कुर्ता -पैजामा पहने था, एक सफ़ारी सूट पहने युवक से कहने लगा, "तुम पूँजीपति लोग ग़रीबों को देखना पसंद नहीं करते हो। जबकि इन्हीं ग़रीबों की वज़ह से इस ठाट- बाट से रहते हो। वरना . . . "
"देखो, तुम ग़लत समझ रहे हो। बात ऐसी नहीं है।"
"तो फिर?"
"यदि वाक़ई ऐसी बात है तो सामने भीख माँग रहे भिखारी को जाकर गले लगाकर दिखाओ।"
"उसे मैं भीख तो दे सकता हूँ, किंतु इस गंदे भिखारी को अपने गले किसी क़ीमत पर नहीं लगा सकता। तुम चाहो तो जाकर उससे गले मिलो। या . . . "
इतना सुनते ही वह कुर्ताधारी युवक लपककर उस भिखारी की ओर बढ़ गया और जाते ही उसे अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया।
इस प्रकार युवक को अपने गले लगते देख पहले तो भिखारी कुछ घबराया, किन्तु फिर कुछ सँभलते हुए बोला, "बाबू! पेट गले लगाने से नहीं रोटी से भरता है . . . और रोटी के लिए पैसा चाहिए।"
लघुकथा के पितामह के नाम से मशहूर महान साहित्यकार डॉ. सतीश राज पुष्करणा जी की आज 76 वीं जयंती है। आज वे हमारे बीच नहीं हैं। उनकी स्मृति में आज उनकी लिखी लघुकथा की समीक्षा एक पाठक की हैसियत से कर रहा हूँ।
'दिखावा' डॉक्टर सतीश राज पुष्करणा की एक प्रसिद्ध और उत्कृष्ट लघुकथा है। कथ्य, शिल्प, भाषा, तथा लघुकथा के अन्य तत्त्वों की दृष्टि से त्रुटिहीन रचना है जिसे पढ़कर हम लघुकथा विधा की बारीक़ियों से अवगत हो सकते हैं।
दो मित्रों और एक भिखारी के मध्य संवादों के द्वारा लिखी गई इस लघुकथा में बहुत ही कम शब्दों में कथ्य और कथा का संदेश उभरकर सामने आया है।
दो मित्र हैं। उनके पहनावे से ही लेखक ने उन दोनों की आर्थिक स्थिति की झलक दिख़ाने की कोशिश की है। पहला मित्र सिद्धांतवादी है तो दूसरा वास्तविकता में जीने वाला। एक भिखारी को देख कुर्ता-पैजामा पहने मित्र सफ़ारी पहने मित्र से कहते हैं कि उनके जैसे धनी व्यक्तियों की हैसियत ग़रीबों की वज़ह से ही है और अमीर ग़रीबों को देखना पसंद नहीं करते। मित्र की बात को आधारहीन बताने पर कुर्ता-पैजामा पहने मित्र उसे सामने खड़े भिखारी को गले लगाने की चुनौती देते हैं। सफ़ारी पहना मित्र ऐसा करने से साफ़ इंकार कर देते हैं क्योंकि भिखारी गंदी हालत में हैं। वे भीख देने को तैयार हैं।
मित्र के कहने पर कुर्ता-पैजामा पहने मित्र भिखारी को बाँहों में भरकर गले लगाते हैं। भिखारी जवाब देता है, "बाबू! पेट गले लगाने से नहीं रोटी से भरता है . . .और रोटी के लिए पैसा चाहिए।" इस प्रकार एक सकारात्मक संदेश देते हुए कथा का अंत होता है।
कथा का पंच बहुत ही कम शब्दों में तीखापन लिए हुए है जो इस कथा को उत्कृष्ट की श्रेणी में स्थापित करने में सार्थक हुआ है।
लघुकथा का शीर्षक बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। लेखक ने कथा का शीर्षक 'दिखावा' दिया है जो बिल्कुल सटीक है। शब्दों की सहानुभूति और दिखावे की दया किस काम की? भीखमंगे को गले लगाने से बेहतर है उसे रोटी दी जाय।
इस लघुकथा में न अनावश्यक विस्तार है और न लेखकीय प्रवेश। एक क्षण-विशेष की घटना और भाव को भरपूर संप्रेषण के साथ लेखक ने प्रस्तुत किया है, जिसमें कलेवर की लघुता है और मारकता की तीक्ष्णता भी।
स्वर्गीय डॉ सतीश राज पुष्करणा की रचना की यह समीक्षा नहीं उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि है।
निर्मल कुमार दे
जमशेदपुर
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