मैं ज़िन्दा नहीं हूँ

01-09-2022

मैं ज़िन्दा नहीं हूँ

निर्मल कुमार दे (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“तुम क्या हो?” 

“मैं लेखक हूँ।” 

“और क्या हो तुम?” 

“मैं पत्रकार हूँ।” 

“तुम ज़िन्दा हो?” 

मैंने अपनी नाक के पास हथेली रखी। 

“जी, मेरी साँस चल रही है,” मैंने जवाब दिया। 

“तुम्हारा ज़मीर ज़िन्दा है?” 

“मतलब?” 

“तुमने गर्भिणी हथिनी की हत्या पर कविताएँ लिखीं, पत्रों में आलेख लिखे। लेकिन तुमने हाथरस की गैंगरेप पीड़िता पर कुछ नहीं लिखा। गैंगरेप और हत्या के अभियुक्तों की रिहाई पर अविचल रहे! आख़िर क्यों?” 

अंतरात्मा के प्रश्नों से मैं बौना बन गया। 

“मैं ज़िन्दा नहीं हूँ . . . ” 

मेरी आवाज़ घुटकर रह गई। 

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