धिक्कार
निर्मल कुमार दे
कार्डियोलॉजिस्ट डॉक्टर सुमन के चैंबर में घुसते ही साठ वर्षीय अनुपम बाबू के शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गई। कुछ देर तक उनकी आँखें डॉक्टर के चेहरे पर टिकी रहीं। डॉक्टर के बायें कान के नीचे एक बड़ा-सा मस्सा था।
“क्या तकलीफ़ है आपको?” डॉक्टर ने सामने रखी तिपाई पर बैठने का इशारा कर पूछा।
“जी, मेरे सीने में दबाव रहता है और हल्का दर्द भी,” अनुपम बाबू ने बताया।
डॉक्टर ने आला लगाकर देखा और पर्ची पर दवाई और कुछ जाँच की सलाह लिख दी।
“चिंता की कोई बात नहीं है। परिवार और बच्चों के साथ आनंद पूर्वक जीने की कोशिश करें,” डॉक्टर ने सलाह दी।
“डॉक्टर साहब! एक बात पूछूँ। बुरा तो नहीं मानेंगे।”
“क्या बात? पूछ ही लीजिए!”
“आपके माता-पिता . . .?”
“ओह! मेरे माता-पिता नहीं रहे। दोनों स्वर्ग सिधार गए हैं।”
“बहुत भाग्यशाली थे आप जैसी संतान को जन्म देने वाले।”
“बिल्कुल नहीं!” डॉक्टर भावावेश में आ गए।
“मैं जब तीन साल का था मुझे अनाथ आश्रम में छोड़कर चले गए मुझे जन्म देने वाले। मुझे इस राज़ का पता भी नहीं चलता अगर मेरा पालन-पोषण करने और मुझे डॉक्टर बनाने वाले मेरे असल पिता के बक्से में मिली डायरी में यह बात लिखी नहीं होती।”
“सॉरी डॉक्टर साहब!” अनुपम बाबू की आँखें गीली हो चुकी थीं।
“मैं तुम्हें नहीं बता सकता डॉक्टर कि मैं ही वह अभागा और गिरा हुआ इंसान हूँ जिन्होंने तुम्हें अपने शहर से बहुत दूर एक अनाथ आश्रम के हवाले कर दिया था . . . लगभग पैंतीस साल पहले . . . क्योंकि तुम ट्रांसजेंडर थे,” अनुपम बाबू की अंतरात्मा उन्हें धिक्कार रही थी।
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