दीये का मोल
निर्मल कुमार दे“इस साल भी दिवाली की ख़ुशी नसीब नहीं है! लोगों की आस्था कम हो गई है अपने धर्म पर, सिर्फ़ दिखावा कर रहे हैं,” बुढ़िया बुदबुदाये जा रही थी और टोकरी में दीयों को भर रही थी।
“क्या हुआ दादी? क्यों समेट रही हो?”
“क्या करूँ? सूर्यास्त हो गया। अंँधेरा छाने के पहले घर भी पहुँचना है। तीन कोस पैदल जाना है।”
“मुझे दीये लेने हैं दादी। पूरी टोकरी लेनी है,” युवक ने कहा।
“काहे मज़ाक करते हो बेटा!”
“मज़ाक नहीं करता हूँ दादी। देखो हमारे दो साथी भी आ गए।”
दोनों साथी पँहुचे और एक ने ख़ुशी से कहा, “आख़िर दीये वाली दादी मिल ही गई।”
“दादी, हमें सब दीये दे दो। हमलोग इस बार से सिर्फ़ मिट्टी के दीये जलाएँगे।
बुढ़िया की आँखें गीली हो गईं।
“सच! सच कहते हो बेटा?”
“हाँ दादी। कितने देने होंगे सब दीयों के . . .?”
“सौ रुपये। बस सौ रुपये दे दो।” बुढ़िया ने कहा।
सौ रुपये का एक नोट देते हुए युवक ने कहा, “हैप्पी दिवाली दादी।”
बुढ़िया के चेहरे पर हँसी खिल गई।
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