संथाली भाषा के कालिदास: नारायण सोरेन
निर्मल कुमार देनारायण सोरेन "तोड़े सुताम" संथाली भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार थे। उनकी रचनाएँ स्नातक से लेकर स्नातकोत्तर तक में पढ़ाई जाती हैं। वे संथाली, बांग्ला हिंदी और संस्कृत के अलावा अँग्रेज़ी के अच्छे जानकार थे। सन 1947 में उन्होंने अँग्रेज़ी भाषा और साहित्य में सम्मान के साथ स्नातक की परीक्षा पास की। उनकी लिखी किताबों में आषाढ़ विनती एक प्रसिद्ध रचना है जो महाकवि कालिदास की कालजयी कृति मेघदूतम पर आधारित है। जब वे बी एस के कॉलेज में संथाली विभाग के शिक्षक थे तो उनसे बात करने का मौक़ा मिला था। उनका लिखा एक आलेख जो बांग्ला में था, मैंने अपने बांग्ला शिक्षक डॉक्टर कृष्णा गोपाल राय के निर्देश से हिंदी में अनुवाद किया था। नारायण सोरेन का मूल आलेख और मेरा अनूदित आलेख लिटिल मैगज़ीन कजंगल में छपा था।
नारायण सोरेन की विद्वता का अंदाज़ा उस समय तो नहीं लगा पाया था, परन्तु उनका सादगी पूर्ण जीवन देखकर मैं अभिभूत हो गया था।
श्री नारायण सोरेन का जन्म एक साधारण कृषक परिवार में 28 अक्टूबर 1922 को हुआ था। इनका पैतृक घर झारखंड के साहिबगंज ज़िले का छोटा आसिला गाँव में है। इनके पिताजी रघुवीर सोरेन और माँ सीता ने आज़ादी के पूर्व अपने इस होनहार पुत्र की शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी नहीं नहीं रखी। सन 1942 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सन् 1947 में अँग्रेज़ी भाषा और साहित्य स्नातक की डिग्री हासिल की। अखंड बिहार में एक प्रसिद्ध संथाली पत्रिका होड़ संवाद का प्रकाशन 1947 ईसवी में शुरू हुआ। स्वतंत्र भारत में संथाली भाषा की यह पहली और लोकप्रिय पत्रिका थी जिसका प्रकाशन आज भी हो रहा है।
इसी पत्रिका में उनकी पहली रचना "कुकली" सन् 1948 में छपी।
नारायण सोरेन 1948 से 1952 तक इन्होंने आपूर्ति विभाग में सप्लाई इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। 1952 के विधान सभा चुनाव में विधायक पद के लिए चुनाव लड़े, परन्तु सफल नहीं हुए। कुछ वर्षों तक उधवा, राजमहल उच्च विद्यालय में अध्यापन किया।1962 से 1968 तक बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे।
इस दरम्यान इनका लेखन कार्य चलता रहा।
1942 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। ग़ौरतलब है कि 42 की क्रांति पूरे संथाल परगना ज़िले में आदिवासियों के बीच गाँधी समर्थक प्रफुल्ल पटनायक, मोतीलाल केजरीवाल के नेतृत्व में क्रांति और सामाजिक चेतना की ज्योति जलाई जा रही थी। श्री नारायण सोरेन के मानस पटल पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
संथाली समाज में अपनी सभ्यता, आचार-विचार, पर्व त्योहार, रीति रिवाज़ पोशाक का बहुत ज़्यादा महत्त्व है। समाज में कुछ कुरीतियाँ और अंधविश्वास भी था। इन कुरीतियों और अंधविश्वासों का प्रखर विरोध करना उस ज़माने में बहुत ही कठिन था। लोक कथा, लोकगीत और वाचिक साहित्य ही इतिहास और मनोरंजन का साधन था। समाज में प्रधान, परगनैत, मांझी जोग मांझी के निर्देशन में निर्णायक फ़ैसले लिए जाते थे।
संथाल आदिवासियों की बड़ी आबादी बिहार, बंगाल, असम, मिज़ोरम, त्रिपुरा उड़ीसा, मध्यप्रदेश, नेपाल और बांगलादेश में बसती है परन्तु 1925 के पहले संथाली भाषा की न अपनी लिपि थी और न लिखित साहित्य।
संविधान की आठवीं अनुसूची में संथाली भाषा को शामिल कर लिया गया है। आज बंगाल, झारखंड, उड़ीसा आदि राज्यों में इस भाषा की पढ़ाई स्नाकोत्तर स्तर तक हो रही है। परन्तु कोई सर्वमान्य लिपि का निर्धारण अभी तक नहीं हुआ है। लेखक अपनी सुविधा अनुसार देवनागरी, रोमन, ओलचिकी, बांग्ला या उड़िया लिपि में लिखते हैं। डॉक्टर राय से मिली सूचना के अनुसार श्री नारायण सोरेन ने अपनी सारी रचनाएँ देवनागरी लिपि में ही लिखी हैं। श्री नारायण सोरेन ने कुल 14 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें से लगभग 6/7 किताबें अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाई हैं। इनकी किताबों को भारतीय प्रशासनिक सेवा, झारखंड लोक सेवा आयोग, बंगाल लोकसेवा आयोग उड़ीसा लोक सेवा आयोग तथा नेट आदि परीक्षा में संथाली भाषा के लिए शामिल किया गया है।
श्री नारायण सोरेन को विक्रमशिला विश्वविद्यालय द्वारा "कविरत्न" तथा संथाली साहित्य परिषद द्वारा "विद्या वाचस्पति" सम्मान से सम्मानित किया गया है। राज्य सरकार तथा केन्द्र सरकार को इनकी पांडुलिपियों के प्रकाशन की ज़िम्मेवारी लेनी चाहिए। संथाली साहित्य के इस कालिदास को यथोचित सम्मान देना सरकार का फ़र्ज़ बनता है।
संथाली भाषा के इस महान साहित्यकार का निधन 67 साल की उम्र में लंबी बीमारी से 12 अक्टूबर 1989 को हो गया।
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