आत्मग्लानि

15-10-2024

आत्मग्लानि

निर्मल कुमार दे (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मैंने गालियांँ दीं
ख़ूब गालियाँ दीं
क्या नहीं कहा
लेकिन वह निर्विकार था
मेरा पारा चढ़ गया
कालिख पोंछ दी
पूरा बदन काला हो गया
फिर भी वह निर्विकार था
मैं घर आया
शराब पी
और बिस्तर पर निढाल सो गया। 
देर रात नींद टूटी
लगा कि कोई सिरहाने बैठ कह रहा है
“बेटा, शराब मत पियो
एक अच्छा इंसान बनो!”
अरे, वह तो गाँधी था
जिसकी मूर्ति पर मैंने
कालिख पोत दी थी। 

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