बरकत
निर्मल कुमार दे
“ए भाई रिक्शेवाले! मुझे अस्पताल तक जाना है। चलो,” सुनीता देवी ने वृक्ष की छाँव में सुस्ता रहे रिक्शेवाले से कहा।
“नहीं जा पाऊँगा। बड़ी धूप है और थका-सा महसूस कर रहा हूँ,” रिक्शेवाले ने अपनी असमर्थता जताई।
“भाई रिक्शेवाले, अस्पताल में मेरा मालिक भर्ती है, उनके लिए खाना ले जाना है, कोई मदद करने वाला भी नहीं है। दूना भाड़ा दे दूँगी,” सुनीता देवी गिड़गिड़ाई।
“अरे नहीं बहन जी, भरी दुपहरी में अपनी छाया भी सिमटती जा रही है। लेकिन चलो भाई जान के लिए . . . बैठिए!” रिक्शे की सीट पर बैठते हुए रिक्शेवाले ने कहा।
सुनीता देवी ने अपनी छतरी से रिक्शेवाले के सर को धूप से बचाने की कोशिश की और बोली, “तुम जैसे इंसानों की जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी।”
“अरे बहन जी, आपने मुझे भाई जो कहा, मेरा दिल पसीज गया।”
अस्पताल पहुँचते ही सुनीता देवी उतरी और रिक्शेवाले को पचास रुपये का एक नोट थमाते हुए बोली, “शुक्रिया भाई जी।”
रिक्शेवाले के चेहरे पर सुकून झलक रहा था। उसने पॉकेट से पच्चीस रुपये निकाले और उसे सुनीता देवी को देते हुए कहा, “आपको दूना भाड़ा नहीं देना है बहन जी। ईमान की कमाई से बरकत होती है।”
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