सतरंगी छटा

15-12-2021

सतरंगी छटा

निर्मल कुमार दे (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

“हैलो गोपाल! क्या कर रहे हो?“ सात साल के शुभम ने अपने ममेरे भाई से पूछा। 

“कल तुमने फूलों पर मँडराती तितलियों का जो चित्र बनाया था उसे आज बग़ीचे में देख रहा हूँ,” गोपाल ने जवाब दिया। 

“सच? अपने फ़्लैट में न फूल न तितली और तो और न सुबह की धूप! सिर्फ़ वीडियो में देखता हूँ ये सारी चीज़ें।” 

“तुम गाँव मेरे यहाँ आ जाओ। अभी ठंडे मौसम में ख़ूब मज़ा आयेगा। हमलोग पिकनिक जाने की सोच रहे हैं।” 

“तब तो बड़ा मज़ा आयेगा। मम्मी और पापा तो अपने ऑफिस में बिज़ी रहते हैं। बग़ल के बच्चे भी आजकल घर में ही रहते हैं। खेलने भी नहीं आते,” शुभम ने शिकायती लहज़े में कहा। 

“मम्मी कहती हैं कि शहर के लोग अपने पड़ोसी के नाम तक नहीं जानते। हम गाँव में किसी के भी यहाँ चले जाएँ चेहरा देख ही कह देंगे हम किनके बेटे हैं।” 

“वाह! तब तो शहर से गाँव ही अच्छा है।” 

“लेकिन पापा कहते हैं कि गाँव सिमटता जा रहा है। लोग शहर की ओर भाग रहे हैं।” 

“तब तो गाँव से भी हरियाली ग़ायब हो जायेगी,” शुभम ने चिंता जताई। 

“नहीं शुभम! हम लोग बड़े होकर कुछ करेंगे न,” गोपाल ने जवाब दिया। 

’आजकल के बच्चे कितने होशियार हो गए हैं। ’ मोबाइल पर दो बच्चों की बातें सुन रहे थे गोपाल के दादाजी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
कविता
कविता - हाइकु
कविता - क्षणिका
अनूदित कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता-मुक्तक
किशोर साहित्य लघुकथा
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
ऐतिहासिक
रचना समीक्षा
ललित कला
कविता-सेदोका
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में