उदासी
निर्मल कुमार दे
“सुनो जी, आज हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में एक समारोह में जाना है। मुझे सम्मानित किया जाएगा।”
“वाह! बहुत-बहुत बधाई!” पत्नी ने ख़ुशी ज़ाहिर की।
“हिंदी भाषा में लेखन के लिए प्रशस्ति पत्र, अंग वस्त्र और नगद ग्यारह हज़ार रुपये भी देने की बात कही है आयोजन समिति के सचिव ने।”
“अरे वाह! आज तक कोई मानदेय तो मिला नहीं आपको! दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। सुना है बड़ा नाम है आपका . . . लघुकथा लेखन में।”
” अरे! लेखक सिर्फ़ पैसे के लिए नहीं लिखता। फिर भी देर-सबेर उसे सम्मान के साथ रोज़ी-रोटी के लिए कुछ पारिश्रमिक मिल ही जाता है।”
लेखक महोदय की बातों से पत्नी संतुष्ट होकर कहा, “देखें, आयोजन समिति ने कैसा आमंत्रण पत्र भेजा है।”
“इस डिजिटल युग में काग़ज़ी आमंत्रण-पत्र की कैसी आशा! फोन पर बताया है कि मेरे व्हाट्सएप पर भेज देंगे। शायद भेज भी दिया हो!
मेरा मोबाइल दो, देखते हैं।”
पत्नी के हाथ से मोबाइल लेकर लेखक महोदय ने व्हाट्सएप खोला।
व्हाट्सएप पर उनकी नज़र पड़ी।
पति के चेहरे पर उदासी के भाव देखकर पत्नी ने पूछा, “क्या हुआ, कोई विशेष बात?”
“क्या कहूँ? हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में इतना बड़ा सरकारी आयोजन और एक आमंत्रण-पत्र भी शुद्ध भाषा में नहीं!”
“क्या ग़लती है आमंत्रण-पत्र में?
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है, “स्वरचित लेखकों की लघुकथा पाठ” लेखक महोदय ने गहरी साँस ली और कहा, “हो गया हिंदी का उत्थान।”
“अब आप क्या करेंगे? इस समारोह में शामिल होकर समिति को आईना दिखायेंगे या नहीं जायेंगे,” पत्नी ने सवाल दाग दिया।
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