सपने
निर्मल कुमार दे
“क्या आपकी पत्रिका देख सकता हूँ?” सामने की सीट पर बैठे सज्जन ने पूछा।
“अवश्य,” बीस वर्षीय दीपक ने मुस्कुरा कर कहा।
ट्रेन अपनी रफ़्तार से चल रही थी। दीपक के पास हिंदी, बांग्ला और अंग्रेज़ी की तीन पत्रिकाएँ थीं।
“आप पढ़ते हैं?” बांग्ला की पत्रिका को पढ़ते हुए सज्जन ने पूछा।
“जी,” छोटा-सा जवाब था दीपक का।
“कॉलेज में? क्या कॉम्बिनेशन है आपका?” सज्जन ने जानना चाहा।
दीपक को कुछ घबड़ाया देख सज्जन ने कहा, “मेरा मतलब कौन-कौन विषय है आपका?”
दीपक ने कुछ विषयों का नाम बता दिया। सज्जन अगले स्टेशन पर उतर गए।
दीपक से कुछ दूर खिड़की से सटे सिंगल सीट पर बैठे प्रोफ़ेसर नंदा से रहा ना गया। विद्वान प्रोफ़ेसर ने दीपक और सज्जन की बातचीत को सुन लिया था।
“बाबू! तुमने सफ़ेद झूठ क्यों बोला?”
प्रोफ़ेसर के प्रश्न से दीपक के चेहरे का रंग उतर गया था।
“मैं क्या जवाब देता समझ नहीं पाया। अपरिहार्य कारण से मैट्रिक से आगे मेरी पढ़ाई नहीं हो सकी।”
“कितने दिन हुए मैट्रिक पास किए? और क्या तुम ये पत्रिकाएंँ नियमित पढ़ते हो?”
“जी सर, साहित्य में मेरी अभिरुचि है, मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ फ़र्स्ट डिवीज़न में पास थी। चार साल हो गए।”
प्रोफ़ेसर नंदा दीपक की आँखों में तैरते सपनों और उनकी विवशता समझ गए।
“बेटा, तुम्हें पढ़ना चाहिए। अभी तुम्हारा सफ़र ख़त्म नहीं हुआ है। मैं साहिबगंज कॉलेज का प्राचार्य हूँ। मैं तुम्हारी मदद करूँगा।”
“जी सर, कोशिश करूँगा,” दीपक की आँखें आँसुओं से भर गई थीं।
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