गुलाब की ख़ुश्बू
निर्मल कुमार दे
“क्यों री लाडो, जब से तुम पूजा मंडप से आई हो कुछ खोई-खोई-सी लग रही हो?” दादी के प्रश्न से उन्नीस साल की पोती कुछ देर निरुत्तर ही रह गई।
“अरे, अब तो तुम्हारी चिंता माँ-बाप को भी होने लगी है। तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी हो गई। कोई राज़ की बात है तो बता!”
पोती दादी के गले लग गई।
दादी की अनुभवी आँखों को समझने में देर नहीं लगी कि कोई असाधारण बात ज़रूर है।
“दादी! शहर से आए दीपक ने मेरे गाल पर आज अबीर मल दिया,” पोती ने अपनी बात किसी तरह उगल दी और दादी की आँखों को पढ़ने की कोशिश करने लगी।
“हे राम! दीपक के परिवार वाले काफ़ी रसूखदार हैं। उनके पिताजी और तुम्हारे पिताजी में कुछ अनबन भी है। दीपक ने कुछ कहा भी?” दादी की चिंता बढ़ गई।
“दादी, दीपक ने मुझे अपनी जीवन-संगिनी बनाने की इच्छा व्यक्त की और मेरी सहमति के लिए मनुहार भी की।”
“सुना है उसकी नौकरी भी लग गई है। तुमने क्या जवाब दिया?”
“लाज और भय से मैंने कुछ नहीं कहा और अपनी सहेली के साथ तुरत मंडप से निकल गई।”
“क्या तुम दीपक को पसंद करती हो? उसके प्रस्ताव से राज़ी हो तुम?”
पोती दादी के सीने से चिपट गई।
दादी ने पोती के चेहरे को देखा, उसमें प्रणय की बसंती आभा चमक रही थी।
“लाडो! जब तक बात पक्की नहीं हो जाती है तुम कोई ग़लत क़दम नहीं उठाना। मैं देखती हूँ, कैसे अपनी लाडो और उसके हमदम के दिलों में खिल रहे गुलाब की ख़ुश्बू से दो परिवार के वैमनस्य दोस्ती में बदल सकते हैं।”
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