चिराग़ तले अँधेरा
निर्मल कुमार दे“इस परिवार का बहुत नाम सुना है। दादाजी कहा करते कि आज़ादी के पहले से ही इस परिवार की शान-शौकत थी। सरकारी दफ़्तरों में इनकी तूती बोलती थी।”
“गुज़रे ज़माने की बातें हैं ये,”दोस्त ने टोका।
“भाई तुम्हारा गाँव तो अभी तक मैं गया नहीं हूँ। बाप-दादा से सुनी बातें ही बताई। लेकिन आज भी लोग नंदकिशोर को नंदू या सिर्फ़ नंदकिशोर कहते सुना नहीं है। मैंने लोगों को नंदकिशोर बाबू ही कहते सुना है।”
“जी, यह सच है। व्यक्तिगत रूप से वे सज्जन ज़रूर हैं, अस्सी-पचासी साल की उम्र में भी स्वस्थ हैं। कभी बीड़ी-सिगरेट या दारू नहीं पीते हुए किसी ने नहीं देखा होगा। लेकिन . . .।”
“लेकिन क्या?”
“मेरे ख़्याल से बड़े ही स्वार्थी क़िस्म के व्यक्ति हैं, कभी सामाजिक या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हुए नहीं देखा। सरकारी नौकरी में थे, पुराने ज़माने के ग्रेजुएट थे। समाज के किसी भी युवा का कभी मार्गदर्शन भी नहीं किया। और तो और . . .”
“और क्या?” दोस्त की उत्सुकता बढ़ गई थी।
”न अपने बेटों को और न अपने पोतों को किसी अच्छे मुक़ाम में पहुँचा पाए।”
“तुम्हारा मतलब सरकारी जॉब से है?”
“सिर्फ़ सरकारी जॉब क्यों, आत्मनिर्भर भी तो नहीं हैं आज की तारीख़ में। फिर भी, इनके पोतों की दबंगई भी कम नहीं है। आपराधिक मामलों में जेल की हवा भी खा चुका है एक पोता।”
“अरे, यह तो चिराग़ तले अँधेरा वाली बात है।”
पटना शहर के एक हॉस्टल में पढ़ रहे दो साथियों की बातचीत का अंत हो गया।
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