कमी

निर्मल कुमार दे (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“सामाजिक विसंगतियों पर उनकी रचनाएँ बड़ी सुंदर होती हैं, पत्र पत्रिकाओं में छपती भी हैं, बड़ी तार्किकता के साथ अपनी रचनाएंँ लिखते हैं; परन्तु . . .”

“परन्तु क्यों,” दोस्त ने कहा। 

“जब हिंदू-मुसलमान की बात आती है तो बड़े अतार्किक हो जाते हैं ये नौजवान लेखक,” दोस्त ने जवाब दिया। 

“देखो दोस्त, बुरा मत मानना। धर्म का सम्बन्ध आस्था से है, तर्क से नहीं। और अधिकांश लोग धार्मिक कम, धर्मांध अधिक हैं। धर्म का मतलब ही संप्रदाय हो गया है आज।”

“तो फिर धर्म से व्यक्ति या समाज का भला कैसे हो?” 

“इसकी चिन्ता किसे है!”

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
कविता
कविता - क्षणिका
अनूदित कविता
कविता - हाइकु
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता-मुक्तक
किशोर साहित्य लघुकथा
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
ऐतिहासिक
रचना समीक्षा
ललित कला
कविता-सेदोका
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में