डाकिया
निर्मल कुमार देमाधुरी बड़ी अधीरता से डाकिए का इंतज़ार कर रही थी। भागलपुर विश्वविद्यालय की छात्रा माधुरी तीन महीने पहले एम.ए. की परीक्षा दी थी और परीक्षा के बाद अपना घर वापस आ गई थी।
साईकिल की घंटी की आवाज़ सुन माधुरी घर से निकली, देखा दरवाज़े पर डाकिया एक लिफ़ाफ़ा देने खड़ा है।
"लो बिटिया तुम्हारा है," डाकिया बग़ल के गाँव का था जो माधुरी को अच्छी तरह से जानता था।
"आओ चाचा भीतर बैठो इतनी धूप में आपने मेरा पत्र देने आ गए।"
"बेटा यह तो मेरी ड्यूटी है। तुम्हारे गाँव में न बिजली है और नेट की सुविधा। तुम गाँव की पहली लड़की हो जो दूर शहर में रहकर पढ़ती हो। ज़रूरी ख़त भी हो सकता है तुम्हारा इसीलिए आज-कल नहीं किया और चला आया।"
माधुरी की माँ डाकिया बाबू के लिए नींबू और शक्कर का शर्बत ले आई।
इसी बीच माधुरी ने लिफ़ाफ़ा खोल पत्र पढ़ा। पत्र उसके सहपाठी अजीत ने भेजा था जिसमें माधुरी के फ़र्स्ट क्लास में एम.ए. की परीक्षा पास होने की ख़बर थी।
माधुरी ख़ुशी चिल्ला उठी, "फ़र्स्ट क्लास।"
डाकिया और माँ को समझने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई कि माधुरी फ़र्स्ट क्लास में परीक्षा पास कर गई है।
"माँ मेरा रिज़ल्ट निकल गया, मैंने फ़र्स्ट क्लास में परीक्षा पास कर ली। चाचा जी को मिठाई खिलाओ।"
"हाँ ज़रूर तुम्हारे चाचाजी ने ख़ुशख़बरी लाने में कभी देर नहीं की।"
डाकिया बाबू के चेहरे की हँसी से ऐसा लग रहा था मानो उसकी बेटी परीक्षा पास की हो।
"सरहद पर जवान, खेतों में किसान और डाकघर का डाकिया अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित नहीं होते, तभी तो अपना देश महान, यह आदर्श वाक्य मुझे बहुत अच्छा लगता है," डाकिया बाबू ने कहा। माधुरी और उसकी माँ के चेहरे पर हँसी खिल गई।
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