सौ रुपए की सब्ज़ी
निर्मल कुमार देबूढ़े माता-पिता, पत्नी और दो बच्चों के भरण-पोषण के लिए सैलून से पर्याप्त कमाई हो जाती थी। तीन महीने से सैलून बंद रहने से आर्थिक तंगी से पस्त हो चुके रमेश को शॉपिंग करने निकलने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है।
साइकिल को कपड़े से पोंछते हुए रमेश ने पत्नी से पूछा, "क्या क्या लाना है?"
"आलू ,प्याज, भिंडी और टमाटर। हरी मिर्च भी माँग लेना जी, फ़्री में दे देंगे दुकानदार," पत्नी ने बताया और एक बड़ा सा झोला थमा दिया।
"अब तो रोने का मन करता है, पास में है सौ रुपए और थमा दिया बड़ा झोला। झोले का चौथाई भाग भी नहीं भरेगा सौ रुपए की सब्ज़ी से," रमेश ने कहा।
"क्यों? मंडियों में सब्ज़ी काफ़ी सस्ती है, किसानों को औने-पौने दाम में अपनी उपज बेचनी पड़ती है; बग़ल की अजय बाबू की पत्नी कहती है," पत्नी ने बताया।
"अजय बाबू की पत्नी ठीक ही कहती है, लेकिन मैं तो चौक पर ठेले वाले से सब्ज़ी ख़रीदता हूँ। दर-भाव करने पर ठेले वाले की बात सुननी पड़ती है, दूध दाल तेल की क़ीमत सस्ती है क्या? पेट्रोल, डीज़ल की क़ीमत आसमान छू रही है; सिर्फ़ सब्ज़ी महँगी नज़र नहीं आती है," रमेश ने विस्तार से बताया।
रमेश की बातें सुनकर पत्नी भीतर गई और दूसरी छोटी झोली लाकर दी, "सौ रुपए में जितनी सब्ज़ी मिले ले लेना। अब तो थाली में भी कटौती करनी पड़ेगी तीन महीने के लिए, पिछले साल की तरह।"
रमेश अपनी विवशता और महँगाई पर कुढ़ते हुए सब्ज़ी लाने चला गया।
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