हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़! 

15-07-2024

हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़! 

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 257, जुलाई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

हालाँकि मैं अपने हितैषियों को कई बार बता चुका हूँ कि मैं क़ायदे से मूर्ख हूँ। इसलिए मेरे मूर्ख हितैषी कृपया बार-बार मुझे यह फ़ील न करवाएँ कि मैं मूर्ख हूँ। मैं अपने बारे में सब कुछ अच्छी तरह जानता हूँ। मैं उन मूर्खों में से नहीं जो मूर्ख होने के बाद भी ख़ुद की सबसे बड़ा बुद्धिजीवी मानते हैं। मैं हर ग़लती कर सकता हूँ, पर अपने को समझदार मानने की ग़लती कभी नहीं करता। 

पर मित्रो! मैं इतना भी मूर्ख नहीं कि अपनी श्रीमती को समझाऊँ। मैं जानता हूँ कि वे मूर्ख होते हैं जो अपनी श्रीमतियों को समझाने में अपना समय नरक करते हैं। और वे बुद्धिजीवी जो अपनी श्रीमती को मौन हो सारी उम्र केवल समझते हैं, फिर अगले जन्म में जैसे ही वे पति पत्नी बनते हैं तो वे फिर मौन हो अपनी श्रीमती को समझने लग जाते हैं। वे जानते हैं कि हर जन्म में केवल श्रीमती को समझना ही शांत ज़िन्दगी जीने का शांतिपूर्ण मार्ग है। और वे महानपुरुष होते हैं जो अपनी श्रीमती की हाँ में हाँ मिलाते हैं। इस संदर्भ में मैं महानपुरुष भी नहीं हूँ। क्योंकि जब जब पानी गले तक आ जाता है, तब तब मूर्ख हो लेता हूँ जूते खाने के लिए। 

कल श्रीमती के मन में पता नहीं किसे देखकर आई, क्यों आई, क्या सोचकर आई कि वह महल्ला चुनाव में खड़े होने की ज़िद कर बैठी। तब एक मिनट में उसने सारी पिक्चर साफ़ करते कहा, “देखो जी! घर में तुम्हारी सेवा करते करते मैं अब ऊब चुकी हूँ। तुम्हारे लिए हर साल करवा चौथ का व्रत रखने के बाद भी मुझे आज तक कुछ नहीं मिला, इसलिए अब मैं जनता की सेवा का व्रत ले जनता की सेवा करते अपनी आने वाली पीढ़ियों का लोक सुधारना चाहती हूँ। परलोक तो यहाँ किसीका सुधरने वाला नहीं। उनका भी नहीं जिन्होंने अंधभक्तों का परलोक सुधारने का ठेका ले रखा है।”

बंधुओ! मैं हर जन्म का विवाहित हूँ। इसलिए और कुछ जानूँ या न, पर यह अच्छी तरह जानता हूँ कि स्त्री हठ से ख़तरनाक पत्नी हठ होता है। उसने एक बार जो ठान ली तो ठान ली। फिर चाहे पति की नाक कटे या मूँछ! तब मुझे एक बार फिर उसके भले के लिए महानपुरुष से मूर्ख होना पड़ा। मत पूछो, जब किसी महानपुरुष को महानपुरुष से मूर्ख के पायेदान पर उतरना पड़ता है, कितनी मानसिक पीड़ा होती है। पर भाई साहब! जब आपने विवाह किया है तो मानसिक पीड़ा से लेकर मानसिक यंत्रणाएँ हँसते हुए झेलना आपका नैतिक कर्त्वय हो जाता है। 

तब मैंने उसके आगे सारे घुटने टेक दोनों हाथ जोड़े उससे निवेदन नहीं, सानुनय प्रतिवेदन किया, “हे आदरणीय! परमादरणीय! ये क्या हठ ले बैठीं तुम। तुम वोटर हो तो वोटर की तरह इसके उसके आश्वासनों के बदले वोट देती रहो। न तुम्हारे सुसराल से आजतक कोई देश सेवा के अखाड़े में गया है, न तुम्हारे मायके से। हमारे वर्ग की जनानाएँ चुनाव नहीं लड़तीं। वे बिना बात के अपने पति से लड़ती हैं। जनता की सेवा पर मात्र उनका अधिकार है जो पीढ़ियों से जनता की सेवा करने का अनुभव रखते हैं। हमारा अधिकार केवल वोट डालना है। ऐसे में चुनाव लड़ने के पेशे में मत उतरो। पेशा बदलने में बहुत रिस्क होता है। 

“तुम्हारा आदर्श पति न तो कोई स्थापित बाहुबली है और न ही उसकी झूठ की अवैध सोसाइटियों का कारोबार है। वह तो तुम्हारे आगे भी सच सौ बार सोचकर डरते-डरते बोलता है कि कहीं तुम उसके एक सौ एक प्रतिशत सच भी झूठ सिद्ध न कर दो! वह तो तुम्हारे हाथों हर पल मौन पिटता रहने वाला निरीह जीव है जिसने अपनी श्रीमती के कर कमलों से सादर पिटने को जन्म लिया है। 

“देखो! तुम्हारे पास वोट डालने के सिवाय और कोई पारिवारिक अनुभव नहीं। चुनाव लड़ना कोई मुझसे लड़ना नहीं कि जितनी बार भी तुम मुझसे बिना मतलब भी लड़ीं, जीत गईं। पति से लड़ने और चुनाव लड़ने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। चुनाव में घर के रिश्ते तक दाँव पर लगाने पड़ते हैं। गधों को मामा बनाना पड़ता है। मनी पानी की तरह बहाना पड़ता है। चुनाव लड़ना ब्लैक मनी वालों का काम है। और तुम तो जानती ही हो कि तुम्हारे पति के पास ब्लैक मनी तो छोड़ो, मनी तक नहीं। शायद तुम्हें पता नहीं तो बता देता हूँ कि इस महीने पिछले महीने की अपनी बैंक की फ़्रिज की किश्त भी नहीं दी गई है। अगली बार तीन किश्तें देने को किसीसे उधार लेना पड़ेगा। बैंक की किश्तों पर जीने वाले जीव चुनाव नहीं लड़ा करते, मात्र वोट डाला करते हैं इनकी उनकी झूठी गारंटियों के बहकावे में आकर। 

“हे मेरी कैकयी! मानता हूँ, तुम पूरे महल्ले में सबसे लड़ाकी हो। हर बार सबसे जैसे-तैसे जीत भी जाती हो। तुम गैस के सिलेंडर के लिए गैस वाले से खुलकर लड़ सकती हो। तुम दूध वाले से शुद्ध दूध देने के बाद भी शुद्ध दूध देने के लिए खुलकर लड़ सकती हो। तुम सब्ज़ी वाले के साथ आधा किलो कद्दू लेने पर मुफ़्त में हरी मिर्च, हरा धनिया लेने को मज़े से लड़ सकती हो। तुम पानी की टंकी ओवरफ़्लो न होने पर पानी वाले से भी झाँसी बन लड़ सकती हो, पर तुम चुनाव बिल्कुल नहीं लड़ सकतीं। क्योंकि सब्ज़ी वाले से लड़ना अलग बात है, चुनाव लड़ना अलग बात! क्योंकि दूध वाले से लड़ना अलग बात है, चुनाव लड़ना अलग बात! क्योंकि पानी वाले से लड़ना अलग बात है, चुनाव लड़ना अलग बात। क्योंकि गैस वाले से लड़ना अलग बात है, चुनाव लड़ना अलग बात। ख़ैर, मुझसे लड़ने और चुनाव लड़ने में तो कोई तालमेल है ही नहीं। 

“री प्रिया! हम जन्मजात लड़ाके नहीं, हम जन्मजात वोटर हैं वोटर! जब भी हमने इस धरती पर आदमी होकर जन्म लिया है, वोटर के रूप में ही लिया है। इस धरती पर हम हर जन्म में अपने उँगली में स्याही लगाने ही आते हैं।” 

“तुम्हें पता है मेरे पास महल्ले में कितने समर्थक हैं? भले ही मैं आठ पास हूँ, पर किसीको भी चुप कराने की मेरे पास ग़ज़ब की स्किल है। मैं बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ सही सही लिख सकती हूँ। लिख कर बताऊँ क्या?” 

“नहीं मेरी विद्योत्तमा!! मैंने तुम्हारे दिमाग़ पर शक किया ही कब? वैसे जन सेवकों को लिखने-पढ़ने की ज़रूरत नहीं होती। उन्हें सच झूठ बोलना आना चाहिए बस! यही उनकी पढ़ाई-लिखाई होती है। वे अनपढ़ भी पीएच.डी. पर भारी होते हैं। मैं तुम्हारी पढ़ाई को चैलेंज करने वाला कौन होता हूँ? तुम्हारे आगे मेरी पीएच. डी. की क्या बिसात! तुम्हारा मैं आज तक सब कुछ सहन करता रहा हूँ और हर जन्म में जो भी कहोगी, वह भी हँसते हुए सहन करता रहूँगा, गारंटी देता हूँ। आज भले ही और जितने मन करे, भूत अपने सिर पर सवार करो, पर चुनाव लड़ने का भूत अपने सिर से उतार दो प्लीज़! चुनाव लड़ना हमारा धर्म नहीं। नेताओं के समर्थन में आपस में लड़ना हमारा धर्म है। अपने अपने नेताओं के समर्थन में एक दूसरे के सिर फोड़ना हमारा धर्म है,” देखता हूँ, अब मेरे उनके आगे हाथ जोड़़ने का कोई असर होता है कि नहीं। श्रीमती के आगे हाथ जोड़ने, घुटने टेकने से अधिक और कर भी क्या सकते हैं भाई साहब आप? 

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