भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

70. आओ कुछ नया ईजाद करें

 

सच कहा है किसी ने
भीड़ की भागीदारी करते करते
हम कहाँ से कहाँ आ गए हैं
किस ओर जा रहे हैं
हमें ही नहीं पता। 
जाने का शाही मार्ग एक है
हम विपरीत दिशा की ओर बढ़ रहे हैं
कैसे होगा मिलन, कैसे होगा संगम
दिशाहीन हुए जा रहे हम
हर दिन का अब नया नामकरण हो रहा है
हमारे बाप दादा के वक़्त
न मात्र दिवस था, न पिता दिवस
न पुत्र दिवस, न हिंदी भाषा दिवस
न सिन्धी भाषा दिवस
थे तो बस वे माता पिता
वो दादा दादी, वो नाना नानी
वन्दनीय रहा वो रिश्ता
जिसके बीच एक नाता था
स्नेह व सम्मान का
संस्कारों की इक नाज़ुक डोर थी
जो बाँधे रखती थी सबको
कई पिरवार आज भी ऐसे हैं
जो रिश्तों को जानते हैं, पहचानते हैं, निभाते हैं
बिना किसी नाम के, बिना किसी शान के
जानते है वे रिश्ते क्या हैं? 
निबाह निर्वाह करते हैं
इस सलाहियत को किस नाम से पुकारें
किस दिन को समर्पित करें
यह तो हर दिन की माँग है
हर वक़्त की ज़रूरत है
समय को क्या नाम दें
कौन सा वह समय है
जब हमें अपनों की ज़रूरत नहीं पड़ती
क्यों हम
डंके की चोट पर दिनों का ज़िक्र कर रहे
हर साल लिखे हुए को फिर लिख रहे हैं
आओ कुछ नया ईजाद करें
जिसे नामकरण की ज़रूरत न पड़े
बस वह जज़्बा रिश्तों की धड़कन बन जाए। 

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