भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

27. बहाव निरंतर जारी है

 

निशब्दता की बर्फ़
आँखों के पोरों पर
शबनमी बूँदें बनकर जमी हुई हैं
भारीपन महसूस कर रही हूँ
कहाँ, कैसे कहूँ सखी
कभी हृदय की धड़कन में
तो कभी आँखों के अविरल बहाव में
कभी पाँवों के तले बहते
ठंडे पानी के छुहाव से
तो कभी उँगलियों के बीच
दबी इस क़लम के दबाव के बोझ से
जो अब ठहराव की स्थिति में
शिथिल पड़ता जा रहा है
क्या है यह
क्या उमर के लम्बे सफ़र की थकान
या
अपने आसपास जान पहचान के
अपनों के बिछड़ने का दर्द
जो धीरे धीरे नसों से परस रहा है बन बूँद बूँद
पीछे आने वाली बूँद
अपने आगे विलोप होती बूँदों के सिवा
भीतर की तन्हाई के दर्द को समेटे आगे बढ़ रही है। 
रास्ता है
पर इकतरफ़ा
बहाव निरंतर जारी है
निशब्दता की पिघिलती बूँदों का। 

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