भीतर से मैं कितनी खाली (रचनाकार - देवी नागरानी)
27. बहाव निरंतर जारी है
निशब्दता की बर्फ़
आँखों के पोरों पर
शबनमी बूँदें बनकर जमी हुई हैं
भारीपन महसूस कर रही हूँ
कहाँ, कैसे कहूँ सखी
कभी हृदय की धड़कन में
तो कभी आँखों के अविरल बहाव में
कभी पाँवों के तले बहते
ठंडे पानी के छुहाव से
तो कभी उँगलियों के बीच
दबी इस क़लम के दबाव के बोझ से
जो अब ठहराव की स्थिति में
शिथिल पड़ता जा रहा है
क्या है यह
क्या उमर के लम्बे सफ़र की थकान
या
अपने आसपास जान पहचान के
अपनों के बिछड़ने का दर्द
जो धीरे धीरे नसों से परस रहा है बन बूँद बूँद
पीछे आने वाली बूँद
अपने आगे विलोप होती बूँदों के सिवा
भीतर की तन्हाई के दर्द को समेटे आगे बढ़ रही है।
रास्ता है
पर इकतरफ़ा
बहाव निरंतर जारी है
निशब्दता की पिघिलती बूँदों का।
विषय सूची
- प्रस्तावना – राजेश रघुवंशी
- भूमिका
- बहुआयामी व्यक्तित्व की व्यासंगी साहित्यिकारा देवी नागरानी
- कुछ तो कहूँ . . .
- मेरी बात
- 1. सच मानिए वही कविता है
- 2. तुम स्वामी मैं दासी
- 3. सुप्रभात
- 4. प्रलय काल है पुकार रहा
- 5. भीतर से मैं कितनी ख़ाली
- 6. एक दिन की दिनचर्या
- 7. उम्मीद नहीं छोड़ी है
- 8. मैं मौत के घाट उतारी गई हूँ
- 9. क्या करें?
- 10. समय का संकट
- 11. उल्लास के पल
- 12. रैन कहाँ जो सोवत है
- 13. पाती भारत माँ के नाम
- 14. सुख दुख की लोरी
- 15. नियति
- 16. वे घर नहीं घराने हैं
- 17. यादों में वो बातें
- 18. मन की गाँठें
- 19. रेंग रहे हैं
- 20. मुबारक साल 2021
- 21. जोश
- 22. इल्म और तकनीक
- 23. शर्म और सज्दा
- 24. लम्स
- 25. अपनी नौका खेव रहे हैं
- 26. नया साल
- 27. बहाव निरंतर जारी है
- 28. तनाव
- 29. यह दर्द भी अजीब शै है
- 30. रात का मौन
लेखक की कृतियाँ
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- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
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