भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

68. नारी अपनी ही तलाश में

 

अपनी पहचान पाने की
बाहरी व भीतरी खलाओं में खोई नारी
अपनी ही क़ैद की छटपटाहट में
आज भी ख़ुद से पूछ रही है . . . 
मैं कौन हूँ? 
और उत्तर में
संवेदना के परों पर
उड़ान भरती उसकी आशाएँ
हर उस सुनी हुई, देखी हुई, भोगी हुई
अनुभूतियों की ज़ामिन बनकर
अपने मन की भीतरी दीवारों पर लिखे
हर दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने का हौसला रखती है
जहाँ से चलकर इस सदी की हर नारी को
अपने भीतर की छटपटाहट से
मुक्ति मिलने का द्वार खुलते नज़र आयें। 
जड़ें
क्यों पुकारती है ये जड़ें
मुझे मेरा रास्ता रोककर
क्यों उलझनों में घेर लेती हैं
मेरे मस्तिष्क के सुख औ चैन को
क्या कोई नाता है इनका मुझसे
जो चाहे अनचाहे मेरे क़दम
उस मिट्टी में सदा धँसने को मुन्तज़िर रहते हैं
पता नहीं क्या सोचते सोचते
मैं क़दम आगे की ओर बढ़ा जाती हूँ
पीछे न लौटने की चाह
बेअख्तियार मुझे आगे और आगे ले जाती है। 
क्या इसमें क़ुदरत के कुछ अनजाने राज़ हैं
या ये करिश्मे हैं जो फ़क़त क़ुदरत ही जाने
न तू जान, न मैं जानूँ
पर तय है, उसका आकर्षण
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
मुझे अपने आलिंगन में भरने को आतुर है
सच तो यह है मैंने भागम-भाग के जीवन में
उस स्पंदन को कहीं खो दिया है
अब इस करोना काल के परिवर्तन ने
ख़ुद की तलाश की परिधियाँ बढ़ा दीं हैं। 

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