भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

60. साँस ले रही है

 

हाहाकार मचा हुआ है
उस राख के ढेर तले
जहाँ, 
जलकर भी नहीं जली
वो ज़िन्दा आहें
वो सिसकियाँ, जो दब गयीं
शायद
मुर्दा लोग पूरी तरह से
मरे नहीं, 
उनमें ज़िन्दा थी
जीने की चाह
ऊपर उठने की चाह
पर
मौत के बेरहम शिकंजों के
शकार बन गए, दफ़नाये गए
और साथ उनके, 
दफ़नाया गया
उनका प्यार, उनका दर्द, उनकी आशाएँ
सभी राख के तले
और अब वे, 
बेक़रार हैं
उस मलबे से ऊपर उठने के लिए! 
हवाओं में एक ख़ामोश शोर है
एक हलचल है
जैसे वे ख़ामोश सिसकियाँ
राख के तले अब भी
साँस ले रही हैं। 

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