भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

51. यादों के इक झुग्गी

 

यादों के बस गई है वो
इक बहुत पुरानी झुग्गी, रहती थी जिसमें मेरी बाई
साथ उसके बेटी उसकी, बड़ी नहीं बस पाँच बरस की
साथ में उसके आया करती
मेरे घर हर रोज़ सुबह
और ख़ुशी ख़ुशी वह झाड़ू लेकर
फ़्रॉक को गाँठ में बाँध अपने पेट में धर लेती
झटपट झाड़ू लगाती, कपड़े भिगोती, 
फ़र्नीचर पोंछ कर फिर कहती
“आई लगा लिया है झाड़ू
“आई दोनों कमरे साफ़ किए हैं
अब कटका फिर लगाऊँगी
बहुत ज़ोर की भूख लगी है, पहले मैं कुछ खाऊँगी”
“जा, जा कर नल से पानी पी ले”
कहकर उसकी ‘आई' बड़बड़ करती बरतन माँजती, 
“नहीं ठहरो” एक मुलायम आवाज़
नरम मिज़ाज की वह मालिकिन उठकर आई
“नहीं ठहरो, मत पियो पानी
मैं चाय हूँ लाती, साथ में कुछ खाने को भी
दोनों पीकर फिर लग जाना काम पर
और ख़त्म कर घर को जाना”
जब सामने आये चाय के प्याले
देखेकर लड़की चहचहाई, चेहरे पर मुस्कान भी छाई
चुस्की चाय की लेकर बोली—
“यह होती है चाय ‘आई', मीठी भी और दूध वाली
आई तू जो है चाय है बनाती
चाय कहाँ वो होती है? 
वो तो बस काला पानी होता है
नाम का रहता दूध है उसमें
सच बता तू मुझको ‘आई'
कितना मिलाती हो दूध में पानी।” 

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