भीतर से मैं कितनी खाली (रचनाकार - देवी नागरानी)
10. समय का संकट
समय साथ नहीं दे रहा
कोई अपने पास नहीं रहा
एकांत में सोच के ताने बाने जटिल हुए हैं
आती जाती ख़बरों के चक्रव्यूह से
निकलने की कोई सूरत सामने नहीं
उलझे हुए दिन व बेसुकून सी रातों को
आधी अधूरी नींद का सरमाया
यह रोज़ रोज़ का जागना सोना
खाना पीना भी लाइलाज सी बीमारी लगने लगी है
क्या करें इसकी दवा
क्या माँगें किसी से दुआ
बस अपने हाथों को उठा कर
उससे कहते हैं अब उठा ले
क्योंकि अब जीना जीवन सा नहीं लगता।
विषय सूची
- प्रस्तावना – राजेश रघुवंशी
- भूमिका
- बहुआयामी व्यक्तित्व की व्यासंगी साहित्यिकारा देवी नागरानी
- कुछ तो कहूँ . . .
- मेरी बात
- 1. सच मानिए वही कविता है
- 2. तुम स्वामी मैं दासी
- 3. सुप्रभात
- 4. प्रलय काल है पुकार रहा
- 5. भीतर से मैं कितनी ख़ाली
- 6. एक दिन की दिनचर्या
- 7. उम्मीद नहीं छोड़ी है
- 8. मैं मौत के घाट उतारी गई हूँ
- 9. क्या करें?
- 10. समय का संकट
लेखक की कृतियाँ
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- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
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