भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

65. जन्मदातिनी

 

जन्मदातिनी है औरत, अपने गर्भ की उपज की
उस कन्या की जो कल माँ बनेगी
उस मर्द की, जो बेटा बनकर, बाप बनेगा
क्यों वह भूल जाता है इस सच को—
कि नारी जीती है, 
पालन करते हुए कितनी बार मरती है
इस सृष्टि के निर्माण के लिए
जो उसकी कोख में सीप में मोती सा समाया
क्यों नहीं दे पाता है उसे वह मान-सन्मान
जो उसका जन्सिद्ध अधिकार है
क्यों वह सोचने की ग़लती कर बैठता है
वह सिर्फ़ व् सिर्फ़ नारी बस बच्चों की माँ है
और उसके घर की रखवाली की मात्र चौकीदारिनी
क्यों उसकी आशाओं, इच्छाओं को अपने स्वार्थ के चौखट पर
बार बार बलि पर चढ़ाने की पहल करता हैं
क्यों वह भूल जाता है, कि वह ज़िन्दा है, 
साँस ले रही है, आग उगल सकती है। 
नहीं! सोच भी कैसे सकता है वह, 
जो अपने ही स्वार्थ की इच्छा के
सड़े गले बीहड़ में वास करते आ रहा है
गंद दुर्गंध उनकी साँसों में मांसभक्षी प्रवृत्ति व्यापित करती है
वही तो हैं, जो उसके तन को गोश्त समझकर
दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेता है
भूल जाता हैं कि कभी वह गले में
फाँस बनकर अटक भी सकती है! 

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