भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

47. भेदभाव का इतिहास

 

सारे मनुष्य बराबर हैं
जीवन जीने का, आज़ादी का अधिकार है उनको
राष्ट्र खड़ा है जिस नींव पर
आज वही अपने उसूलों पर पूरा न उतर पाया
हंगामा मचा हुआ है, विश्व के हर कोने में
‘रंग कोई गुनाह नहीं, 
न्याय की गुज़ारिश करना कोई गुनाह नहीं’
जालसाज़ी के शक पर हथकड़ी पहने
वह काला ‘जॉर्ज फ़्लोएड’ विरोध करता रहा
पर उस गोरे के काले जूते
अपना दबाव नहीं घटा पाए
वह चीखा, वह चिल्लाया, जीवन के लिए गिड़गिड़ाया
आई कैंट ब्रीथ . . . आई कैंट ब्रीथ . . . 
प्यास ने पानी चाहा, जीवन ने मौत से छुटकारा चाहा
पर कमज़ोर पर बलवान का ज़ोर रहा
जीवन बिलबिलाता रहा, गिड़गिड़ाता रहा
मौत का शिकंजा भारी पड़ गया
शरीर शिथिल हुआ, प्राण पखेरू प्रवास कर गए
भीड़ में हाहाकार मचा, फिर शोर हुआ और शोले भड़के
भड़का भीड़ में जोश भी इतना
खुली हुई हथेली बँध गई, मुट्ठी बनकर भिंच गई
जोश में खोकर होश, वही घूँसा बनकर भिड़ गई
नियति थी या हादसा, मौत का तांडव हुआ
ललकार उठी हर चीख फ़ज़ा में
इक नया इतिहास सफ़ेदी पर कालिख पोत रहा
काला रंग कोई गुनाह नहीं
न्याय की माँग कोई गुनाह नहीं। 

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