भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

48. ग़ुलामी की प्रथा

 

ग़ुलामी की प्रथा जारी है अब भी
अमानवता की चौखट पर
जकड़ती है मानवता को ज़ंजीरों में
और आज वही हुआ
सफ़ेद रंग ने रौंदा श्याम रंग को
जब तक प्राण पखेरू उड़े नहीं। 
जीवन दान देना पुण्य है, जीवन लेना पाप
तो फिर पाप की भागीदारी में क्यों
हाथ किये काले उस श्वेत रंग ने
क्या नहीं जानता था वह, या भूल गया था यह भी
लाल रंग जो बह रहा है धमनियों में उसकी
वही लाल रंग लहू बहता है उसमें भी
एक जीेवत आवाज़ कराह रही थी
मैं साँस नहीं ले सकता . . . 
मैं साँस नहीं ले सकता . . . 
चिल्लाता ही रह गया वह, गिड़गिड़ाता ही रह गया
चंद साँस लेने के लिए वह छटपटाता ही रह गया
दिल न पिघला, दया न आई, कोई बचा न पाया उसको
चंगुल में जिसके फँसा था, जानलेवा था शिकंजा
शिद्दत काम कर गई, 
जान देना, जान लेना है ख़ुदा के हाथ में
फिर काल बनकर क्यों किये थे हाथ काले, 
उस लाल रंग से जो जीवन की भीख माँगता रहा गया
“आई कैंट ब्रीथ, आई कैंट ब्रीथ!” 

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