भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

57. शब्दों का जाल

 

शब्दों की इमारत
इबारत का नाम पाकर
इठलाती है, इतराती है
पर अपनी नींव तले, कितने सच वो
झुठलाती है, दफ़नाती है
कहीं उनका ज़िक्र नहीं
कहीं कहीं शब्दों को आकार देने वाला
ख़ुद भी अपने भीतर कितनी बार
उखड़ती साँसों को थामता है
ख़ुद के लिए आज़ादी की भीख माँगता है
पर नियति प्रधान
जो करे कराए शब्दों का निर्माण
उसी क़िले में बैठकर लिखने वाला
अपनी थाह पा लेता है
चंद लम्बी साँसें ले कर जी लेता है। 

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