भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

42. बँट गए आदमी

 

दर्द की एक नन्ही लौ, 
जगमगाती है, मेरे भीतर
याद दिलाती है उजाले की
फिर भी सोचती हूँ—
निश्चित हर रोज़ नया सूरज उगता है। 
अँधेरों के गर्भ से
एक नया उजाला अपनी कोख में लिए, 
देखकर आशाओं के खुले आकाश का
नज़र क्यों निराश लौट आती है
सोचती हूँ—क्यों धरती बँट गई है
आदमी बँट गए हैं
क्यों यह आसमां
टुकड़ों टुकड़ों में नहीं बँटा? 
इस जहाँ को देखकर सोचती हूँ—
क्यों होती है जंग, 
क्यों बँट जाती है धरती टुकड़ों में
जब छाँव सबके हिस्से की है
क्या कोई टिमिटामाती लौ
उन तारीक दिलों को रौशन नहीं करती? 

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