भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

55. सफ़रनामा

 

जब भी सफ़रनामा किसी का पढ़ती हूँ
तो साथ हो लेती हूँ उसके
हमसफ़र बनकर, संग संग झूमती हवाओं के
उड़ती हूँ ऊँचे और ऊँचे
उन वादियों में जहाँ कभी गई नहीं
या कभी मैं जा पाऊँगी? 
उम्मीद तो नहीं छोड़ी है
हौसला पस्त नहीं हुआ है
बस हालात ने यूँ घेरा है
मगर बंद करके आँखें अपनी
मन की आँखों से हूँ देख रही
बिन बोले बिन डोले वे सुंदर दृश्य
क्योंकि सफ़र में तुम हमसफ़र हो, 
सामने है रास्ता, मंज़िल भी वहीं हैं, 
जहाँ खड़ी हूँ
अब भी हाथ थामे तेरा। 

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