भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

5. भीतर से मैं कितनी ख़ाली

 

सब कुछ है मेरे पास
उस रब का दिया हुआ
बहुत कुछ नहीं, फिर भी सब कुछ
जिसकी मुझे ज़रूरत है
घर, गाड़ी, नौकर-चाकर, व्यापार, कर्मचारी
भीड़ रहती है आए दिन मेरे आस-पास
मेरे घर में
कोई न कोई उत्सव रोज़ मनाया जाता है
जब चार दोस्त, व् उनकी बीवियाँ
आकर जमघट मचाती हैं
मेरे दफ़्तर के कर्मचारी
आते जाते सलाम करते हैं
फिर भी न जाने क्यों
कभी कभी सोचों में गुम रहती हूँ
ख़ुद में खोई रहती हूँ
कभी अपनी गर्दन, कभी अपना हाथ हिला देती हूँ
उसका अर्थ क्या है मुझे भी नहीं पता
उनकी ओर देख कभी मुस्कुरा भी देती हूँ
कभी एक आधा ठहाका भी लगा लेती हूँ
पर जाने क्यों, 
अपना ही लगाया हुआ ठहाका
कितना अजनबी सा लगता है मुझे लगता
है कोई झुनझुना बज रहा हो
 
जिसके भीतर से आती आवाज़ से मैं अनजान हूँ
भरपूर जहान में घर भरा हुआ, जेबें भरी हुईं
फिर भी क्यों कहीं न कहीं
कोई कमी है, कुछ ख़ालीपन है
जब मैं पल दो पल ख़ुद से मिल कर बैठती हूँ
अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की इच्छा को रौंदकर
ख़ुद की बेलगाम चाहतों पर अंकुश लगाकर
मैं वह पल जीती हूँ
तो आभास होता है मुझे
परिचित होती हूँ इस सच से
मैं सम्पूर्ण बाह्य रूप से
भीतर से मैं कितनी ख़ाली। 

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