भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

49. साँसें रेंग रही हैं

 

आकाश से ऊँची ख़्वाइशें
बेपर सी वो उड़ चली थीं
साँसों की सरगम पर, छेड़ कर मधुर सी धुन
उस यक तारे पर, जो भूले हैं हम आज बजाना
और छोड़ दिए हैं सुनने, वे
शाह, स्वामी और सचल के बैत
वे गद्य-पद्य के श्लोक, जो गीता ने दोहराए
दोहे दास कबीर व तुलसी के
जो माँ-दादी ने दिन भर गाये
अब, इस दोहरे चौराहे पर
ज़िन्दगी रुकी है कुछ पल थक हार कर
भागते भागते सपनों की सुरंगों से
ख़्वाहिशें थम गई हैं, हाँफते-हाँफते आकर ठहरी हैं
उस रौशन दुनिया में
जहाँ तारीक साए साफ़ दिखाई दे रहे हैं
वही जो जीवन की बागडोर थामे कह रहे हैं
“ये करो, वो ना करो
कुछ करो, कुछ ना करो की फ़सीलें
बंद घरों में भर रही घुटन, ख़्वाहिशों में भर रही है सीलन
उड़ान भरना तो दूर, अब ज़मीन पर
चलते चलते लगता है जैसे साँसें रेंग रही हैं। 

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