भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

41. ख़ुद के नाम एक ख़त

 

प्रिय सखी, 
आज वक़्त की शाख़ से टूटकर एक लम्हा
मेरी याद के आँगन में आकर ठहरा है
कुछ सोचों का सिलासिला चलता रहा
फिर जाने कब वो कहाँ टूटता रहा, 
और साथ उसके क्या क्या टूटा, 
क्या बताऊँ क्या सुनाऊँ
इन्सान की फ़ितरत बदली
साथ उसके बँट गए आँगन
बीच में उठ गई दीवार, 
अहं की गर्दन तन गई, 
इन्सानियत को खा गई इन्सान की हवस
सर्द हो गई प्यार की बाती
सन्नाटों की सल्तनत बाक़ी रही
जहाँ ठँडी छाँव को आदम तरस रहा है
शरीर वहीं खिज़ाओं के थपेड़ों से झड़ रहा है
आगे और क्या लिखूँ? मन भर आया है
यादों के दीपक असुवन में झिलमिला रहे हैं, 
बुझती हुई साँसों ने आज फिर चोट खाई है
इन यादों के आँगन में, जहाँ ठहरा हुआ वह पल
मेरे अस्तित्व को पुकार रहा है, 
जाने कब मिलना हो? 
तब तक, साथ है रिछाई
जिसे वक़्त की आँधी उड़ाकर आँगन में आ ठहरी है। 

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