भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

15. नियति

 

जब तक ख़ुद से मिली न थी
अनजान थी! 
एक नहीं, अनेक सच्चाइयों से
जिन्हें मैं अपने ही क़फ़स से ढकती रही
गंधारी की तरह खुली आँखों पर
पट्टी बाँधकर
हर सच्चाई को टटोलते हुए नकारती रही
क्या कभी देखा अनदेखा एक हो सकता है? 
जुर्म और सज़ा को एक तराज़ू में तोला जा सकता है? 
नहीं ना? 
तो फिर क्यों सवाल किया? 
मन ने युधिष्ठिर की तरह
कि सौ जनम तक कोई गुनाह नहीं हुआ है मुझसे
क्यों यह बीनाई मेरे हिस्से में है आई? 
कृष्ण ने कहा था—
“नियति टल नहीं सकती, किसी की भी नहीं!” 
जन्मों का क़र्ज़ एक जनम में तो
उतरने वाला नहीं
यह मानव जनम एक चक्रव्यूह
मंद बुद्धि से समझना मुश्किल
पर अपने बोये की फ़सल
ख़ुद को काटनी है, यह तय है, 
बस मानना है, स्वीकारना है
बिना किसी दलील के
यही बेबसी का अंतिम चरण
नियति बन जाता है। 

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