भीतर से मैं कितनी खाली (रचनाकार - देवी नागरानी)
15. नियति
जब तक ख़ुद से मिली न थी
अनजान थी!
एक नहीं, अनेक सच्चाइयों से
जिन्हें मैं अपने ही क़फ़स से ढकती रही
गंधारी की तरह खुली आँखों पर
पट्टी बाँधकर
हर सच्चाई को टटोलते हुए नकारती रही
क्या कभी देखा अनदेखा एक हो सकता है?
जुर्म और सज़ा को एक तराज़ू में तोला जा सकता है?
नहीं ना?
तो फिर क्यों सवाल किया?
मन ने युधिष्ठिर की तरह
कि सौ जनम तक कोई गुनाह नहीं हुआ है मुझसे
क्यों यह बीनाई मेरे हिस्से में है आई?
कृष्ण ने कहा था—
“नियति टल नहीं सकती, किसी की भी नहीं!”
जन्मों का क़र्ज़ एक जनम में तो
उतरने वाला नहीं
यह मानव जनम एक चक्रव्यूह
मंद बुद्धि से समझना मुश्किल
पर अपने बोये की फ़सल
ख़ुद को काटनी है, यह तय है,
बस मानना है, स्वीकारना है
बिना किसी दलील के
यही बेबसी का अंतिम चरण
नियति बन जाता है।
विषय सूची
- प्रस्तावना – राजेश रघुवंशी
- भूमिका
- बहुआयामी व्यक्तित्व की व्यासंगी साहित्यिकारा देवी नागरानी
- कुछ तो कहूँ . . .
- मेरी बात
- 1. सच मानिए वही कविता है
- 2. तुम स्वामी मैं दासी
- 3. सुप्रभात
- 4. प्रलय काल है पुकार रहा
- 5. भीतर से मैं कितनी ख़ाली
- 6. एक दिन की दिनचर्या
- 7. उम्मीद नहीं छोड़ी है
- 8. मैं मौत के घाट उतारी गई हूँ
- 9. क्या करें?
- 10. समय का संकट
- 11. उल्लास के पल
- 12. रैन कहाँ जो सोवत है
- 13. पाती भारत माँ के नाम
- 14. सुख दुख की लोरी
- 15. नियति
- 16. वे घर नहीं घराने हैं
- 17. यादों में वो बातें
- 18. मन की गाँठें
- 19. रेंग रहे हैं
- 20. मुबारक साल 2021
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-