भीतर से मैं कितनी खाली

भीतर से मैं कितनी खाली  (रचनाकार - देवी नागरानी)

8. मैं मौत के घाट उतारी गई हूँ

 

श्मशान घाट में खड़ी हूँ
उन दिवंगत आत्माओं के 
सफ़ेद कफ़न में लिपटे शरीरों के आसपास
जो क़तार में अपनी चिता पर
जलाए जाने के इंतज़ार में लेटे हैं
ज़मीन पर, चबूतरे पर, सड़क पर, घाटों पर
जाने किस कर्म की सज़ा पाने को
भारत की पावन भूमि पर
जहाँ उन्हें माँ की गोद आग़ोश में न ले पाई
जहाँ स्वार्थ की ज्वाला
उन्हें जीना तो क्या, 
मरने के बाद भी अपना न पाई
यूँ दर बदर-बे-पैरहन
नग्न इंसानियत के दिल दहलाते दृश्य
दर्द के लावे को पिघिला सकते हैं, पर
पत्थर दिल इंसान के दिल नहीं
जो ख़ुद भी उसी कगार पर खड़े हैं
कल को उन्हें भी यहीं आना है
अपने पाँवों पर चलकर नहीं
चार कांधों पर ढोए जाना है
उनका नसीब अच्छा होगा
जो इस काल में चार कांधों पर आते होंगे
इस महाकाल के दौर में
जो करोना के चक्रव्यूह में घिरे हैं, और
जो नहीं है, उन्हें ये भी तो पता नहीं
कि वे कल कहाँ होंगे . . . 
 
ज़मीन पर पड़े रहेंगे या पत्थरों के ढेर पर
मख़मली रे शम की चादर पर, या
किसी खद्दर को ओढ़े कचरे के डब्बे में
जहाँ उनके बदन को नोंच नोंच कर चील कौव
अपने अपने पेट की आग बुझा रहे होंगे
या उन जलती बुझती ज्वालाओं की तरह जो
चिता की चिंगारियों से उठकर
आसमान की ओर अपनी तमाम
आशा और निराशाओं से देख रही है
इन धधकते मंज़रों की गवाह बन गई है
और हैरान है क़ुदरत के क़ानून पर
जो न्यायालय का दरवाज़ा भी नहीं खटखटा पा रही है
क्या माँगे उनसे, जो न्यायाधीश बन बैठे हैं
जो परमात्मा की सत्ता को नकार कर
ख़ुद न्याय करने लगे हैं
यह न्याय क्या रंग लाएगा? 
पता नहीं पर समय आने पर रंग लाएगा ज़रूर
पानी को पानी, दूध को दूध
और ख़ून को ख़ून के रंग से ज़रूर रंग देगा। 
यह होगा एक नया इतिहास जो
कोरे पन्नों पर ख़ून की लाली से लिखा हुआ क़ानून, 
जो सभी के लिए एक होगा
धनी निर्धन को न ख़रीद पाएगा
निर्धन भूखा मर जाएगा
पर भीख नहीं माँगेगा अपने जर्जर जीवन के लिए
जिसे बिना अग्नि जल जाने की रम्ज़ आ गई है
जो जीते जी मरने की रम्ज़ सीख गया है
हाँ सीख गया है इस करोना काल के 
नव निर्माण के बीच जीते जी मरना। 

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