परिधि और त्रिभुज
अमरेश सिंह भदौरिया
मैं अब एक परिधि बन गई हूँ,
जिसका केंद्र कहीं खो गया है।
तुम्हारे साथ जो जीवन था,
वो त्रिकोण जैसा था—
मैं, तुम और आसमान।
तुम चले गए,
तो एक कोण टूट गया।
अब जो भी जोड़ती हूँ,
वो त्रिभुज नहीं बनता,
बस टूटी हुई रेखाओं का
एक अधूरा चित्र बनता है।
गाँव की हर गली अब
मेरी परिधि के बाहर लगती है,
और लोग
मेरे भीतर झाँकते हुए
बस सवाल छोड़ जाते हैं।
खेतों के किनारे जो मेंड़ें थीं,
कभी हमारी योजनाओं की रेखाएँ,
अब वो भी
किसी गणित की तरह
असमाप्त प्रश्न बन गई हैं।
मैं अब रोटियाँ नहीं बेलती,
मैं वृत्त खींचती हूँ—
हर एक में तुमको खोजते हुए।
पिया,
तुम्हारे बिना
सारे आकार
बेमानी हो गए हैं।
अब बस
मन के काग़ज़ पर
एक त्रिभुज अधूरा पड़ा है,
और उसकी परिधि पर लिखा है—
‘तुम कब लौटोगे?’
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