बंजर ज़मीन
अमरेश सिंह भदौरियाहृदय की ज़मी पर
अहसास की आद्रता से
चाहत की उष्णता पाकर
कभी उगा था तुम्हारे
पवित्र प्रेम का अंकुर
यक़ीनन जीवन सबसे बड़ी
ख़ुशी ने दिल की दहलीज़ पर
दस्तक दी . . . थी
ये अंकुरण अकेला ही नहीं आया
और भी बहुत था कुछ इसके साथ
कल्पना की नई उड़ान
अरमानों का नया क्षितिज
उम्मीदों के नए नवेले पंख
और कुछ ख़ुशनुमा ख़्वाब
इस प्रेम की लतर को मैं प्रतिदिन
स्नेहजल से सींचकर बड़ा कर रहा था
अचानक . . . एक दिन
सच के . . . समाघात से
अरमानों का महल ढह गया
जिसमें दबकर प्रेम मर गया
बिखर गईं स्वर्णिम कल्पनाएँ
टूट गए सभी सुहाने स्वप्न
तन्हाई, चिंता, घुटन, बेबसी, मजबूरियाँ
और . . .
बची है चाहत जो सिसक रही है
हृदय की ज़मीन को खारे जल से
सींचने के लिए रो रहे हैं नयन
क्योंकि विज्ञान भी कहता है कि
बंजर ज़मीन पर कोई
अंकुरण . . . नहीं होता!!