बंजारा
अमरेश सिंह भदौरिया
मैं बंजारा हूँ—
ना मेरा कोई घर,
ना मेरा कोई नक़्शा।
जिस रास्ते से चला,
वो मेरा हो गया।
जिस पेड़ के नीचे ठहरा,
वो मेरा आसमान बन गया।
मैंने रिश्ते भी
मौसमों की तरह जिए हैं—
कुछ ठंड से काँपे,
कुछ गर्म साँसों में पिघल गए।
लोग पूछते हैं—
“क्या तुम थकते नहीं?”
मैं मुस्कुरा देता हूँ—
क्योंकि ठहराव थकाता है,
रास्ता नहीं।
मेरे पास कुछ नहीं,
फिर भी बहुत कुछ है—
धूप का स्वाद,
मिट्टी की ख़ुशबू,
और अनजानों की मुस्कानें।
मैंने पाया है ख़ुद को
हर खोने में,
मैंने सीखा है जीना
हर विदाई में।
क्योंकि बंजारा होना
मतलब रास्ते से रिश्ता रखना—
ना मंज़िल माँगना,
ना मुक़ाम जताना।
बस चलना . . .
जब तक साँस है,
जब तक सवाल हैं।
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