पहली क्रांति

15-05-2025

पहली क्रांति

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

दो पत्थर टकराए, 
एक चिंगारी उठी। 
धधक उठा जंगल, 
पेड़, पत्ते, जीवन—सब राख। 
धुएँ में लिपटी भीड़ ने कहा—
“क्रांति!”
 
लपटें उछलीं, 
हवा ने और उकसाया। 
क़स्बों के माथे पर
काली लकीरें खिंच गईं। 
घरों की दीवारों पर
छायाएँ थरथराईं। 
 
लोग दौड़े, 
कोई भय में, कोई लूट की चाह में। 
कुछ ने जलती हुई लपटें थाम लीं, 
कुछ ने कहा—
“यही आग इतिहास लिखेगी।”
 
पर आग ने सिर्फ़ जलाया। 
माटी को, 
बीज को, 
घोंसलों को। 
 
धुएँ की गंध लहराई, 
रात के अँधेरे में। 
सवेरा हुआ, 
धुआँ बैठा, 
और वही टूटी ज़मीन। 
वही जली शाखें। 
कोई क्रांति न थी। 
 
उसी राख में कहीं
एक बीज गिरा। 
किसी ने नहीं देखा। 
ना शोर, 
ना उत्सव। 
ना घोषणा, ना आंदोलन। 
 
बस धरती ने अपने मौन गर्भ में
उसे समेट लिया। 
अंधकार की परतों में
वक़्त की नमी से लिपट
वो बीज धीरे-धीरे
अपनी जड़ों से बात करने लगा। 
 
बीज बोला—
“मैं बाहर जाऊँगा।”
 
धरती हँसी—
“सब कुछ जल चुका है, 
तू भी मिट जाएगा।”
 
बीज ने कहा—
“मैं मिटने ही तो आया हूँ। 
मिट कर उगने के लिए।”
 
बरसों बीत गए। 
लोग चिंगारी की बात करते रहे। 
कितनी लपटें उठीं, 
कितने जंगल राख हुए। 
हर बार कहा गया— “ये क्रांति है।”
 
पर क्रांति कभी
लपटों में नहीं थी। 
 
कभी
रात के गहरे मौन में
मिट्टी को चीरता अंकुर
अपनी पहली साँस लेता है। 
कोई नहीं देखता। 
कोई नहीं जानता। 
 
क्योंकि
सच्ची क्रांति
दृश्य में नहीं, 
अदृश्य में घटती है। 
 
वही बीज
धीरे-धीरे
धरती की जड़ पकड़ने लगा। 
उसकी जड़ें
इतिहास की परतों में उतर गईं। 
पाषाण में समाए
पुरखों के स्वप्न तक। 
 
उसने
भूख, बारिश, धूप, 
हर विष पी लिया। 
फिर एक दिन
धरती के माथे पर
हाथ रखकर कहा—
 
“अब मैं आ रहा हूँ।”
 
अंकुर फूटा। 
धूप में झिलमिलाया। 
कोई नहीं जानता था
कि यही असली क्रांति है। 
 
वो अंकुर
धीरे-धीरे
वृक्ष बना। 
उसकी शाखाओं पर
चिड़ियाँ आईं। 
उसकी छाँव में
थके हुए लोग लेटे। 
उसके नीचे
प्रेम ने जन्म लिया। 
घरों की छतों पर
हरी पत्तियाँ फूटने लगीं। 
 
और फिर
सदियों बाद
किसी बूढ़े ने
उँगली से उस वृक्ष की ओर इशारा कर कहा—
“यही है पहली क्रांति।”
 
चिंगारी जलाती है, 
बीज उगाता है। 
 
एक दृश्य बदलता है, 
दूसरा मनुष्य। 
 
एक राख छोड़ता है, 
दूसरा जीवन। 
 
सच्ची क्रांति
वक़्त के तवे पर
धैर्य की धीमी आँच पर
संघर्ष की नमी में
चुपचाप सिकी हुई
वो रोटी है, 
जिसका स्वाद
सिर्फ़ वही जानता है
जिसने सच में भूख सही हो। 
 
आज भी लोग
लपटों की तरफ़ भागते हैं। 
शोर, भीड़, भाषण, नारे। 
और कहीं
किसी चुप ज़मीन में
एक बीज
अपनी हथेली फैलाए
आकाश को छूने की तैयारी कर रहा है। 
 
क्योंकि
हर बार जब दुनिया राख बनती है, 
धरती
एक बीज और बो देती है। 
 
यही है
पहली क्रांति। 

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